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मोरां का महाराजा

मोरां का महाराजा -बलराज सिंह सिद्धू, यू.के.

सूर्य दूर पश्चिम में डूबने को है। रावी नदी के तट पर बसे लाहौर की हीरा मंडी दस्तूर के मुताबिक रंगीन रात की तैयारी में जुटी हुई है। तीन घुड़सवार मंडी की गश्त कर रहे हैं। वेशभूषा व वस्त्रों से देखने में वे सौदागर प्रतीत होते हैं। उनमें से एक घुड़सवार का पहरावा सूफीयाना है और चेहरे पर दाढ़ी है। दूसरे के खुली दाढ़ी व बाल खुले छोड़कर पगड़ी बांधी हुई है। तीसरा जिसकी लम्बी दाढ़ी व ऐंठदार मूंछे हंै, वह उनका सरदार लगता है। उसने सिर पर मुंडासा मारकार बेतरतीब ढंग से पगड़ी बांधी हुई है तथा पगड़ी का एक सिरा खुला छोड़कर अपनी एक आंख को छिपा रखा है। यह बायीं आँख बचपन में चेचक की बीमारी से चली गई थी। चेहरे पर चेचक के दागों की तो वह अधिक परवाह नहीं करता, लेकिन आँख की खराबी निःसंदेह उसे कचोटती और पीडि़त करती है।

तीनों मंडी के मध्य आकर कुछ विचार-विर्मश कर रहे होते हैं कि समीप के कोठे पर से एक कंजरी छत की दीवार पर बैठकर गीले बालों को कपड़े से झटककर सुखाने लगती हैं। गीले बालों के छींटे पड़ने पर तीनों घुड़सवार ऊपर मुंड़ेर की ओर देखने लगते हैं। कानी आँख वाले घुड ़सवार की नज़र उस कंजरी पर ऐसी अटकती है कि वह पलकें झपकना भूल जाता है। वह अपनी कमर से बंधी सुराही का ढक्कन खोलकर सूखी शराब के गटागट तीन-चार घूंट भरकर कड़वाहट से निजात पाने के लिए खंखारता है तथा अपने साथी से पूछता है, “हीरा मंड़ी का यह नया हीरा कौन है ?“

“महाराज, यह मोरां कंचनी है। इसकी माँ खुद अपने समय की मशहूर नर्तकी थी तथा कई महाराजाओं की रखैल रह चुकी है। पहले ये अमृतसर के रंड़ी बाजार में नाचा करती थी। अभी हाल ही में लाहौर आई है।“ सूफीयाना लिबास वाला घुड़सवार कहता है।
कानी आँख वाले को आश्चर्य होता है, “यह अमृतसर में थी और हमें पता भी नहीं चला !“

“महाराज, ये कंवर खड़कसिंह के जन्म पर मनाये गए जश्न में भी आई थी। उस समय नशे में होने के कारण आपने ध्यान नहीं दिया होगा। हाँ, याद आया, आप कुछ वर्ष पहले एक महफि़ल में इसका मुजरा देख चुके हैं। उस समय यह मुश्किल से बारह-तेरह साल की थी। भूल गये लखनऊ की वह महफिल…?“
कानी आँख वाला अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालता है। उसे याद आता है कि लखनऊ के नवाबों की एक महफिल में उसने कमसिन-सी एक लड़की के नृत्य से प्रसन्न होकर सिक्कों की बरसात कर दी थी। यदि उसे उस समय जंग की तैयारी न करनी होती तो उस बाल नृतकी को उसी समय उठा लाता।

“ओह, हाँ हाँ, याद आया, क्या ये वही है ?“
“हाँ, हजूर, अब तो काफी निखार आ गया है इस पर।“ खुले बालों वाला साथी कानी आँख वाले को तिरछी नज़र से देखते हुए कहता है।
काना घुड़सवार अपनी कमर से बंधी सिक्कों की थैली खोलकर अपने साथी की ओर ज़ोर से फंेकता है। उसका साथी जैसे ही थैली को लपकता है तो काना घुड़सवार हुक्म देता है, ‘‘गुलाब सिंह, उठा लाओ, आज से ये सिर्फ़ लाहौर के दरबार में ही मुजरा करेगी।’’
उसके दोनांे साथी मंद-मंद मुस्कराते हंै और तीसरा सूफीयाना लिबास वाला साथी कहता है, ‘‘महाराज, सप्ताहभर पहले चम्बे से जो लक्ष्मी देवी उठाकर लाई गई थी, उसका क्या होगा ?’’
‘‘अज़ीज़-उद-दीन, उसका क्या है ? वह तो मेरे हरम में है, लेकिन यह नायाब हीरा मुझसे यहाँ कंजरखाने में बरदाश्त नहीं होता। तुम लोग जानते ही हो कि रणजीत सिंह उत्तम नस्ल की शिकारी कुतिया, फुर्तीली घोड़ी और सुन्दर स्त्री किसी दूसरे के पास रहने नहीं देता।’’ महाराजा रणजीत सिंह की इकलौती आँख मोरां पर एकाग्र हुई रहती है।
फ़क़ीर अज़ीज़-उद-दीन मजाकिया लहजे में बोलता है, ‘‘महाराज, आप अपनी हरकतों से बाज नहीं आएँगें। ये काम हो जाएगा। हम शीघ्र काम निपटा लें और वापस महल को चलें।’’

‘‘नहीं, आज और कुछ नहीं करेंगे। यह शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह पुत्र महा सिंह का हुक्म है। इसे अभी उठाकर लाओ। मंै घोड़े पर अपने साथ बिठाकर ले जाना चाहता हूँ। आज की रात के सभी काम खारिज।’’ इतना कहते हुए महाराजा ने हाथ में पकड़ी सुराही फिर अपने मुँह से लगा ली। उसमें शराब की एक भी बूँद नहीं है।
ऐसा देखकर ड़ोगरे गुलाब सिंह ने अपनी सुराही महाराजा के हवाले कर दी। महाराजा एक ही सांस में बड़े-बड़े घूंट भरकर शराब की आधी सुराही खाली कर देता है और गुुलाब सिंह की ओर देखता है।

‘‘महाराज आप महल में चलें, दातार कौर (रानी राज कौर जिसका नाम महाराज ने बदलकर दातार कौर कर दिया था क्योंकि राज कौर उसकी माता का भी नाम था) आपका इंतजार कर रही होंगी।’’ मैं इसे आधी रात को किले के पिछले दरवाज़े से लाकर आपको पेश करता हूँ।’’
“हाँ, यह ठीक रहेगा। इससे लाहौर सरकार की बदनामी भी नहीं होगी।“ फ़क़ीर अज़ीज़-उद-दीन उसकी हाँ में हाँ मिलाता है। छत पर खड़ी मोरां की नज़र अचानक रणजीत सिंह से मिलती है तो वह आँख में आँख ड ़ालकर सिर को झटककर उसे ऊपर आने का इशारा करती है। फिर हँसकर अंदर दौड़ जाती है।

“हाय, मैं मर जाऊँं, अफगानी बरछे की तरह धंस गई।“ रणजीत सिंह कलेजे पर हाथ रखकर दांत पीसता हुआ कहता है।
वहाँ से वे चलने ही वाले होते हैं कि तोपची गौस खान आ जाता है, “सिंह साहब, मैं दाना मंडी से आ रहा हूँ, व्यापारियों ने अनाज की कमी को देखते हुए अनाज की कीमतें बढा दी हैं। सारी प्रजा मंहगाई के कारण त्राहि-त्राहि कर रही है।“
“ठीक है, कल से शाही अनाज-भंड़ारों के मुँह खोलकर सारा अनाज गरीबों में बाँट दिया जाए। व्यापारियों की अक्ल अपने आप ठिकाने पर आ जाएगी।“ महाराजा रणजीत सिंह मौके पर ही अपना फैसला सुना देता है।
चारांे घुड़सवार अंधेरे को चीरते हुए शाही किले की ओर रवाना हो जाते हंै।
’’’
रात जैसे-जैसे आगे बढती जाती है, वैसे वैसे रणजीत सिंह की बेताबी में भी वृद्धि होती जाती है। वह एक तड़फ और बेचैनी महसूस कर रहा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। उसके हरम में एक से बढकर एक अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं। खूबसूरत औरत देखकर महाराजा प्रायः हलक जाया करता है तथा अपनी मनपंसद औरत को झट से अपने हरम की शान बना लेता है। इस मकसद की पूर्ति के लिए पहले वह अपनी दौलत का सहारा लेता है। अगर दौलत से बात न बने तो वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करता है।
आज दातार कौर और महताब कौर का हुस्न महाराजा को फीका-फीका प्रतीत होता है। उसकी आँख के सामने तो बिल्लौरी आँखांे वाली, सुन्दर गोरी, पतली खूबसूरत देह वाली तथा अपनी उम्र से दस-ग्यारह साल छोटी मोरां कंचनी मंडरा रही है। तड़फ और बैचेनी से महाराजा और अधिक व्याकुल हो जाता है।…

रात आधी गुज़र चुकी है। पिछले एक घंटे में महाराजा कम से कम पचास बार अपने वस्त्रों पर इत्र छिड़क चुका है। बेजारी में कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाते हुए अचानक महाराजा की नज़र अपनी हथेलियों पर चली जाती है। हर समय तलवार की मूठ पर रहने से उसके हाथ सख्त हो गए हंै। हाथांे में बिवाई फटने लग गई है। वह केवल छः साल का था जब म्यान से तलवार खींचनी शुरू कर दी थी। महाराजा ने चमेली का तेल हाथों को लगाया और मोम लेकर बिवाइयों को भरने लग पड़ा। ऐसा करते हुए वह बीच-बीच में कंगनीदार गिलास में विदेशी शराब भरकर मुँह लगाकर पी जाता, जो उसे कंपनी के एक फिरंगी जनरल वेनट्यूरा (जो बाद में महाराजा के पास भर्ती हो गया था) ने फ्रांस से लाकर तोहफे के तौर पर दी है।

मोरां के इंतजार में महाराजा जाम-दर-जाम पीता गया… रात गहरी होती गई… महाराजा मदहोश होकर अपनी ज़रनिगार कुर्सी पर ही सो गया।
सुबह का सूरज निकल आया है लेकिन मोरां नहीं आई। उसने लाहौर तख़्त की गुलामी स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है।
बाद दोपहर जब महाराजा रणजीत सिंह को होश आता है तो वह मोरां… मोरां… पुकारने लग पड़ता है। उसकी आवाज़ें सुनकर सारे अहलकार एकत्र हो जाते हैं तथा वे महराजा को मोरां के इन्कार की जानकारी देते हैं। यह सुनकर महराजा क्रोध में आ जाता है। उसका चेहरा एकदम से तपकर लाल हो जाता है। “तुम लोगो ने उसे बताया नहीं कि खुद लाहौर सरकार ने याद किया है ?… शेर-ए-पंजाब रणजीत सिंह ने बुलाया है ? इस नाफरमानी का नतीजा जानती है वह ?“

“हाँ महाराज, उसे सरकार की ताकत का पूरा पूरा इल्म है।“ साखे खान बोला।
“नहीं, उसे मेरी ताकत का कोई अंदाजा नहीं है। अंदाजा होता तो सिर के बल दौड़ी चली आती। उसने अभी मेरे हाथ नहीं देखे। मैं पंजाब सहित सारा लाहौर फूंक दूँगा। मुझे मोरां चाहिए, मोरां, आया समझ में ?“ आवेश में आकर महाराजा रणजीत सिंह अपनी स्वर्ण जडि़त कुर्सी के हत्थे पर मुक्के मारने लग पड़ा।

दरबार में सबसे पीछे खड़ा गुलाब सिंह आगे बढ़ते हुए बोला, “महाराज, धीरज रखें, कुछ समय और दें, काम हो जायेगा।“
“यह समय ही तो होता है जिसका मेरे पास अभाव होता है और मुझे हर अहम काम करने के लिए समय निकालना पड़ता है।… इसकी माँ को… एक कंजरी की इतनी जु़र्रत कि लाहौर सरकार की हुक्म-अदूली करे… घोड़े और लश्कर तैयार करो, मैं अभी उठाकर लाता हूँ उसे। वो भी क्या याद रखेगी कि शुकरचक्किया मिसल के चढ़त सिंह का पोता आया है… बुर्रा…!“

मिसर लाल सिंह मौके को संभालते हुए नीम-शराबी महाराजा को आगे बढकर एक और जाम पकड़ाता है। महाराजा एक ही सांस में पूरा जाम खत्म कर जाता है। ताज़ा जाम के साथ मिलकर रात वाली शराब फिर ज़ोर मारती है तथा महाराजा फिर से बेसुध हो जाता है।
मदहोशी की हालत में भी महाराजा ‘मोरां… मोरां… मोरां…’ की रट लगाये रखता है। कुछ समय पश्चात जब महाराजा फिर से होश में आता है तो वह दहाड़ कर अपने जनरलों से कहता है कि ‘‘मेरे चेहरे पर क्या फूल लगे हुए हंै… खड़े-खड़े क्या देख रहे हो ? क्या नलवे को बुलाऊँ ?…. नहीं, नलवा नहीं मानेगा इस काम के लिए… जाओ, मोरां कंचनी अभी इसी वक्त मेरी गोद में होनी चाहिए, नहीं तो सभी को तोप से बांधकर उड़ा दूँगा।“

इतना सुनकर सभी दरबारी ड़र जाते हैं, क्योंकि वे यह सच्चाई जानते हंै कि जब महाराजा सूफी अर्थात नशा-रहित होता है तो दुनिया में उससे अच्छा आदमी कोई नहीं है। लेकिन जब शराबी होता है तब उस से बुरा आदमी भी कोई नहीं है।

ड़रे हुए-से खड़े सेवकों को देखकर महाराजा गरजता है, “मुहूर्त निकलवाऊँ या ढोल नगारे बजवाऊँ ?… तभी जाओगे ? जाओ दौड़कर जाओ, मुझे अभी मोरां कंचनी चाहिए… हाय मो…रां… !“ दरबार की दीवारों व छतों को चीरती महाराजा की आवाज़ किले से बाहर तक गूंजती है।
महाराजा की ललकार सुनकर सेवादार और अधिक भयभीत हो जाते हैं। घुड़सवारी, शिकार, औरतबाज़ी व शराबनोशी महाराजा की सब से बड़ी कमजोरियाँ रही हंै। मनचाही हसीना हासिल करने के लिए तो वह युद्व लड़ने से भी गुरेज नहीं करता, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि वह किसी औरत के लिए इस प्रकार पागल हुआ हो। सभा में उपस्थित चतर सिंह, दीवान दीना नाथ, ड़ोगरा सुचेत सिंह व रणजोध सिंह मजीठिया जैसे समझदार पदाधिकारियों को यह सब भविष्य में आने वाले किसी संकट का सूचक लगा।

इसकी सबसे अधिक चिंता महाराजा के वफ़ादार जनरलों को अंदर ही अंदर खाने लगी। सिर्फ़ ध्यान सिंह व उसके भाई गुलाब सिंह को छोड़कर महाराजा की मोरां को लेकर ऐसी हालत देख डोगरे भाइयों के चेहरों पर मुस्कान छा गई।

ध्यान सिंह ने अवसर को सम्भालते हुए उसी समय महाराजा के सामने मेज़ पर पड़ी सुराही में से एक और जाम भरा और महाराजा को पेश करते हुए बोला, “महाराज, छोटा मुँह बड़ी बात, अगर आप हुक्म करें तो मोरां से मैं बात करके देखूँ ? मैं हुज़ूर की तारीफ़ों के ऐसे पुल बांधूगा कि जमजमा तोप 1⁄4अहमदशाह दुरानी के आदेश पर वजीर शाहवली ने 1760 ई. में ज्यादा दूरी तक मार करने वाली यह विशेष तोप बनाई थी1⁄2 के गोले की तरह सीधी आपके चरणों मे आ गिरेगी।“

‘‘हाँ-हाँ, ध्यान सिंह इस काम के लिए तुम ही मुझे सबसे काबिल लगते हो। तुम इस काम में माहिर हो, तुम मेरे हरम का सही ध्यान रखते हो। मैं तुझे मनोरंजन मंत्री ही न बना दूँ ? जल्दी कर, मेरी तो मोरां के बग़ैर जान ही निकली जा रही है। इस काम के लिए सारे शाही खजानों के मुँह खुले हंै। शाही फौजें तेरे एक इशारे पर सब तहस-नहस कर देंगी। जो चाहिए ले ले, पर आज रात को मोरां मेरी बांहों मंे होनी चाहिए, नहीं तो सुबह किले की बुर्जी मंे ले जाकर तेरा सिर कलम कर दूँगा और उसे सलामी दरवाज़े पर चीलों के खाने के लिए टांग दूँगा, आई बात समझ में ?“

इस धमकी को सुनकर ध्यान सिंह का गला सूखने लगा। कुछ पल पहले दिमाग में बनाई योजना एकदम से छू-मंतर हो गई। उसे सिर्फ़ किले की बुलंद बुर्जी, हीरों से जड़ी म्यान वाली रणजीत सिंह की तलवार तथा अपनी गर्दन दिखाई देने लगी। आँखों के आगे तारे नाचने लगे। चेहरा पीला पड़ गया। उसका सिर चकराने लगा। बोलने के लिए की गई अपनी पहल पर उसे पछतावा होने लगा। वह मन ही मन अपने आपको कोसने लगा…

शेष जनरलों की तरह वह भी तो आँखंे नीची करके चुप खड़ा रह सकता था… क्या ज़रूरत थी उसे मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ ड़ालने की ? ध्यान सिंह का मन हुआ कि वह अपने मुँह पर खुद चपत लगाए। उसके पीछे खड़े उसके भाई गुलाब सिंह ने जब उसके कंधे पर हाथ रखा तो घ्यान सिंह को कुछ हौसला हुआ।

“मेरा विचार है कि महाराजा को अब आराम की ज़रूरत है। महाराज…“ रणजीत सिंह के निजी अंगरक्षकों ने उसे बांहो का सहारा दिया और लड़खड़ाते हुए रणजीत सिंह को आरामगाह में लिटा आए।
घोड़ी पर सवार होकर ध्यान सिंह किले से बाहर इस तरह मुँह लटकाकर निकला जैसे अभी बेटी को मिट्टी में दबाकर आया हो। उसके अंदर चल रहे द्वंद-युद्ध के बारे में जैसे उसकी काबुली घोड़ी भी जान चुकी थी। इसलिए उसकी चाल भी बहुत धीमी हो गई है।

किले से बाहर आकर ध्यान सिंह ने सुरक्षा बुर्जी की ओर देखा और फिर अपनी गर्दन को हाथ लगाकर उसके सही सलामत होने का यकीन अपने आप को दिलाया। ध्यान सिंह को अपनी जान शिकंजे में फंसी महसूस हुई। एक पल के लिए उसके मन में विचार आया कि वह रणजीत सिंह की रियासत से दूर चला जाए। “पर कहाँ ? दूर जम्मू अपने गांव डिओली, नहीं मैसूर… हैदराबाद के निजाम बहादुर तो अवश्य अपने साये में उसे छिपा लेगें… नहीं, वह शेर-ए-पंजाब के साथ दुश्मनी क्यों मोल लेगें ?… उन्हें रणजीत सिंह की ताकत का अंदाजा है। फिरंगी सरकार तो मुझे ज़रूर पनाह दे देगी। नहीं, ईस्ट इंडिया कंपनी तो मेरे द्वारा खुद रणजीत सिंह से समझोते व संधियाँ करने को तैयार है। रणजीत सिंह तो शायद मुझे बख़्श दे, कंपनी हरगिज मुझे माफ़ नहीं करेगी। इसके साथ ही मेरी पंजाब पर शासन करने की इच्छा खाक में मिल जाएगी।“ अपने ही प्रश्नों का जवाब देता ध्यान सिंह किले से काफ़ी दूर आ गया।

बाहर आकर ध्यान सिंह ने पीछे मुड़कर किले की ओर देखा। किले की दीवारों के छेद में से दिख रहे तोपों के मुँह देखकर तो वह और अधिक भयभीत हो गया। ध्यान सिंह तोपखाने की तोपों की संख्या भलीभाँति जानता है। उसे महसूस हुआ कि सभी 288 तोपों के सामने बांधकर उसे उड़ाया जा रहा है। उसी समय बादशाही मस्जिद में नमाज पढ़ने जा रहा मज़हर अली तेज़ी से घोड़ा दौड़ता ध्यान सिंह के पास से गुज़रते हुए बोला, “ध्यान सिंह, अल्ला करे आप अपने मंसूबे में कामयाबी हासिल करें।“

“इंशा अल्ला, मुझे अपनी नमाज में याद रखना।“ बच्चे के रोने जैसी आवाज़ ध्यान सिंह के मुँह से निकली। उसे लगा कि जैसे मज़हर अली उसे शुभकामना नहीं बल्कि धमकी देकर गया हो। ध्यान सिंह ने घोड़े को ऐड़ लगाई तथा हीरा मंड़ी की ओर बढ़ गया।’’
तड़के मुँह अंधेरे महाराजा को शराब की तलब हुई। उसने अपनी दासियों और रानियों को तैयार होकर जनानखाने के लीलागृह में बुला लिया।

महाराजा अपनी दासियों और रानियों के झुरमुट के बीच बैठा शराब 14 मोरां का महाराजा
पी रहा है। रणजीत सिंह के एक तरफ रानी दातार कौर व दूसरी तरफ दासी रूप कुमारी उसे आलिंगन में लिए बैठी हंै। दरबारी नर्तकी पदमा अपना नृत्य प्रस्तुत कर रही है। महाराजा ने मेहताब कौर को अपनी बांहों में लेने के लिए अभी अपनी बांहे ऊपर की ही थीं कि ध्यान सिंह महाराजा के पास सीधा जनानखाने में आ गया। पहरेदारों को यह विशेष हिदायत है कि ध्यान सिंह कभी भी बिना अनुमति महाराजा को मिल सकता है। महाराजा उस पर अंध विश्वास इसलिए करता है क्योंकि महाराजा के लिए अ ̧याशी के सारे इंतजाम ध्यान सिंह द्वारा ही किये जाते है। ध्यान सिंह के बिना और किसी को भी इस तरह जनानखाने में आने की इजाज़त नहीं है। महाराजा को दूसरे दरबारियों ने कई बार ध्यान सिंह के महाराजा की दासियों से शारीरिक संबधों के संकेत दिए हैं, लेकिन महाराजा किसी की कोई बात नहीं सुनता, “खबरदार, अगर किसी ने मुझे ध्यान सिंह के खिलाफ़ भड़काने की कोशिश की। मेरी बेशक एक आँख है, लेकिन मुझे लाहौर मंे खड़े को दिल्ली दिखाई देती है। मैं नयनजला हूँ 1⁄4जिसे आँखंे बंद करके भी दिखाई देता है1⁄2।“

इतनी प्रताड़ना सुनकर कर्मचारी ख़ामोश हो जाते हंै। महाराजा ने ध्यान सिंह को भारी जागीरें बख़्शने का वादा भी किया हुआ है। ध्यान सिंह जैसे ही फतेह बुलाता है तो सब स्त्रियाँ महाराजा व ध्यान सिंह को अकला छोड़कर दूसरे कमरे में चली जाती हंै।

“हाँ, क्या समाचार है ?“ महाराजा गुस्से से बोला।
ध्यान सिंह झिझकता हुआ-सा उŸार देता है, “महाराज काम तो हो गया पर…।“
“पर क्या ?“ महाराजा तेज़ी से बोला।
“पर…।“
महाराजा पंलग पर से उठकर खड़ा हो गया, “क्या पर पर लगा
रखी है। तू पर को काट और मुद्दे पर आ।“
“मोरां आपके हरम मे आने को तैयार नहीं हुई। वह कहती है कि
वह अपनी सौतनों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। महाराजा को मुजरे का लुत्फ उठाना हैं तो दूसरे रजवाड़ों तथा रईसों की तरह उसके कोठे पर आए।“
“क्या ! उसकी ये मजाल ? उसकी बहन…“ महाराजा का चेहरा गुस्से में लाल हो गया।
“जाने को तो महाराज आप भेष बदलकर उसके कोठे पर भी जा सकते हैं… पहले भी तो कई बार ऐसा किया है।“
महाराजा ने घ्यान सिंह को बीच में टोकते हुए कहा, “नहीं, अपमान है इसमें मेरा… उसे मेरे पास ही आना पड़ेगा… सीधी तरह बंदी बनकर प्यार से आ जाए, नहीं तो सीने के ज़ोर पर लेकर आऊँगा।“
ध्यान सिंह अपने सूखे होठों पर जीभ फेरते हुए बोला, “मुझे पता था सरकार यही कहेंगे। इस बात का ध्यान रखते हुए मंैने सब प्रबंध कर दिए हंै। इससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।“
“क्या मतलब है तुम्हारा ? पहेलियाँ मत बुझाओ।“

“इंतजाम कर आया हूँ, महाराज। लाहौर के बाहर एक हवेली है। अभी पिछले हफ़्ते ही हम लोगों ने कुर्क की है। वारिस शाह लुकाइये जग
कोलों, भावें अपना ही गुड़ खाइये जी, जो बात पर्दे से हो जाए, उस जैसी कोई बात नहीं होती। मैं मोरां को वहाँ हवेली में छोड़कर आया हूँ और वह वहाँ सरकार की खिदमत में कोई कसर बाकी नही छोड़ेगी। इस काम पर कुछ खर्च हुआ है… अगर सरकार ख्ंाजानची को कहकर…“ ध्यान सिंह बोलता-बोलता अपना कान सहलाने लग पड़ा।

रणजीत सिंह ने अपने गले में से बहुमूल्य माला उतारकर ध्यान सिंह को देते हुए कहा, “खर्चे की परवाह न कर, मैं दीवान को कह दूँगा। तुझे मुँह मांगे इनाम मिलेंगे। मैं जल्दी ही तुझे राजा की उपाधि से नवाजूँगा। चलो, चलें।“
रणजीत सिंह को साथ लेकर ध्यान सिंह लाहौर से तीन-चार किलोमीटर दूर बगवानपुर के पीछे वाली पहाड़ी की ओर चल पड़ा। महाराजा के अंगरक्षक व दस-बारह सिपाहियों का काफि़ला भी उनकी सुरक्षा के लिए उनके साथ है। उनके पीछे एक बग्घी में कुछ दासियाँ भी हंै, जो ध्यान सिंह के कहने पर महाराजा ने खिदमतदारी करने के लिए साथ ले ली हंै।

हवेली पहुँचकर महाराजा के सिपाहियों ने हवेली के चारों तरफ घेरा ड़ालकर पहरा देना शुरू कर दिया। महाराजा को बाहर इंतजार करने के लिए कहकर दासियों के साथ सिर्फ़ ध्यान सिंह ने ही हवेली में प्रवेश किया। ध्यान सिंह के ऐसा करने पर महाराजा की बेचैनी और बढ गई तथा उसे ध्यान सिंह पर गुस्सा आने लगा। वह मन ही मन ध्यान सिंह को गालियाँ निकालने लगा, ‘‘ये साले ड़ोगरे अपने आप को चाणक्य की औलाद ही समझते हंै… भूल गए इन्हंे वे दिन जब मेरे पास तीन रूपये पर नौकरी करने लगे थे। ये तो मैं ही मेहरबान हो जाता हूँ, वर्ना…।“
रणजीत सिंह इस तरह ध्यान सिंह को मन ही मन कोस रहा होता है कि तभी ध्यान सिंह हवेली के दरवाजे़ पर आकर महाराजा को अंदर आने का इशारा करता है। रणजीत सिंह घोड़े से उतरकर हवेली की ओर कमान से निकले तीर की तरह दौड़ा। विशाल हवेली के मेहमान कक्ष में दासियों ने महाराजा को पलंग पर बिठाया। उस पर फूलों व केवड़े के इत्र की बारिश की। महाराजा ने सब दासियों की ओर ग़ौर से देखा। उसे किसी में से भी मोरां का चेहरा दिखाई नहीं दिया। महाराजा ने कमरे में चारांे ओर नज़र दौड ़ाई। उसे चारांे तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आया। महाराजा अभी कुछ बोलने ही वाला था कि कमरे में एक हसीन लड़की ने प्रवेश किया। महाराजा को लगा कि जैसे कमरे के अंदर प्रकाश ही प्रकाश हो गया हो। नूर-ही-नूर ! महाराजा के मुँह से अपने आप ही निकला, “मोरां ! मेरी जान !!“ मोरां ने दायें हाथ की सभी अंगुलियों को जोड़कर माथे से लगाकर ‘सलाम’ अजऱ् किया। उŸोजना के वश में होने के कारण महाराजा को जवाब देने में असमर्थ रहा। महाराजा को यकीन ही नहीं हो रहा था कि मोरां उसके पास है। यह सब कुछ उसे एक सपना ही लग रहा है। महाराजा तो सारा आलम भूल गया है।

“तख्लिया !“ 1⁄4एकांत1⁄2 कहकर मोरां ने सभी दासियों को कमरे से बाहर भेज दिया। महाराजा के पास पलंग पर बैठकर मोरां ने उन्हंे पान परोस कर दिया। फिर, उनके बीच दो चार रस्मी तौर पर हाल-चाल पूछने
जैसी बातें हुईं। महाराजा ने मोरां के हुस्न की जो तारीफें कीं, उससे मोरां ने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि महाराजा किस तरह उस पर लट्टू है। महाराजा को बचा-खुचा डंक मारने के इरादे से मोरां उठकर खड़ी हो गई तथा कमरे का दरवाज़ा बंद करते हुए कहने लगी, “जहांपनाह की इजाज़त हो तो मैं साजिंदों को बुलाकर अपना नृत्य पेश करूँ ?“
“ओह, रहने दो मोरां… आज नृत्य नहींे, आज तुम धरती पर नहीं, मेरे दिल
की सेज पर नाचोगी, तेरे रूप की चमक सीधी कलेजे में धंसती है, सहन नहीं होता मुझसे।“ महाराजा उठा और उसने मोरां को अपनी बाहों में उठा लिया। मोरां ने रणजीत सिंह के गले में बांहें ड़ालकर अपना मुँह आगे बढाया तथा अपने गुलाबी अधर महाराजा के होठों पर रख दिए। महाराजा के होठों ने मोरां के होठों को ज़ोर से भींच लिया। मोरां को पलंग पर लिटाकर महाराजा उसे बार-बार चूमने लगा। महाराजा मोरां को इस तरह से टूटकर पड़ा जैसे वह किसी स्त्री से प्यार नहीं बल्कि अफगान फौजों से युद्व कर रहा हो। मोरां को चूमना छोड़कर महाराजा ने अपने अंग-वस्त्र को खोलने के लिए जैसे ही उठना चाहा, मोरां ने उसके गले में हाथ ड़ालकर महाराजा को वापिस अपने ऊपर खींच लिया। मोरां व महाराजा के वस्त्र कुछ दूर गलीचे पर गुत्थम-गुत्था हुए पड़े हैं… पूरे कमरे के सन्नाटे में दो प्रकार की आवाज़ें गूँज रही हंै… एक महाराजा की ज़ोर-अजमाइश की… दूसरी सरूर में आई हुई मोरां की… कुछ देर बाद दोनों आवाज़ें आपस में मिलकर तसल्ली के संकेत प्रकट करते हुए एक नई व ऊँची धुन पैदा करती हैं…।

महाराजा के सीने से चिपकी हुई मोरां टांग के सहारे से रजाई खींचकर ऊपर तान लेती है। महाराजा को एक असहनीय और अकथनीय खुशी हासिल होती है। ऐसी महान खुशी महाराजा को इससे पहले तब हुई थी जब उसने लाहौर किले पर अपनी जीत का निशान केसरी झंड़ा फहराया था। अगले दिन दोपहर तक मोरां व महाराजा काश्मीरी रजाई में लेटे रहे। भूख लगने पर महाराजा ने उठकर अपने कपड़े पहने तथा मोरां भी अपने कपड़े लेकर हमाम की ओर चली गई।

महाराजा ने शाही बावर्चियों को खाना मंगवाने का संदेश भेजकर अपने लिए बड़ा-सा जाम बनाया। शराब पीते समय महाराजा की नज़र बिस्तर पर रात के कुचले हए फूलों पर गई। शराब का आधा प्याला बीच में ही छोड़कर वह स्नान कर रही मोरां के पास गया तथा कपड़े उतारकर उसके साथ नहाने लग पड़ा। नहाने के बाद दासियों ने मोरां व महाराजा को कपड़े पहनाकर तैयार किया। मोरां का रानियों की तरह हार-सिंगार किया गया। खाना खाते समय मोरां व महाराजा ने एकसाथ शराब पी। दासियाँ महाराजा के साथ छोटी-छोटी शरारतें करती रहीं। भोजन समाप्ति के बाद महाराजा ने मोरां के साथ आराम फरमाने की ताकीद करके आरामगाह का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। इसके बाद दरवाज़ा रात के भोजन के समय खुला व भोजन के बाद दरवाज़ा फिर से बंद कर लिया गया।

इस प्रकार पूरा एक महीना दरवाज़ा केवल भोजन व शराब या कोई 17 मोरां का महाराजा
अन्य ज़रूरी वस्तु लेने के लिए खुलता और फिर से बंद हो जाता रहा। महाराजा ने किसी भी व्यक्ति को मिलने से मनाही की ताकीद कर दी है। सिर्फ़ हर तीन दिन बाद फ़क़ीर अज़ीज-उद-दीन महाराजा को मिलकर जाता है। वह भी महाराजा को मर्दाना ताकत बढाने की कोई औषधि देकर चला जाता है, जिसे महाराजा शराब में घोलकर पीता है।

पूरे एक महीने के बाद महाराजा मोरां से विदा लेकर शाही काम निपटाने और राज प्रंबधों का जायजा लेने के लिए किले में गया। लेकिन वहाँ पर उसका ज्यादा दिल नहीं लगा। रात को रानियों व दासियांे के साथ भी उसका दिल अधिक नहीं बहलता है। एक सप्ताह में सारे आवश्यक काम निपटाकर महाराजा फिर से मोरां के पास हवेली में चला गया और उसने दो महीने हवेली से बाहर पैर नहीं रखा। महाराजा को अपनी सल्तनत के कार्यों के बारे में कोई अधिक चिंता नहीं हुई, क्योंकि हर काम के लिए उसने विश्वसनीय व सुयोग्य व्यक्तियों को पदाधिकारी नियुक्त किया हुआ था। महाराजा मोरां के साथ रंग-रलियाँ मनाता तथा शराब पीता रहा।
इस प्रकार महाराजा महीने, दो महीने बाद सप्ताह भर के लिए हवेली के बाहर जाता और फिर मोरां के पास वापिस लौट आता। महाराजा दिन रात हवेली में ही गुज़ारता, महीना-महीना शराब के दौर चलते। सारा-सारा दिन मोरां का नृत्य होता। रात को मोरां व महाराजा सेज पर नृत्य करते व आपस में गुत्थम-गुत्था होकर पड़े रहते।
समय महाराजा के शासन की तरह अपनी गति से चलता रहा।

मोरां के प्रति महाराजा की प्रेमासक्ति तथा प्रशासन से उसकी लापरवाही की ओर राज्य प्रबंधको ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया या यह कह सकते हैं कि उन्हंे इसकी आदत पड़ चुकी थी। ये उनके लिए कोई नई बात नहीं है। यह महाराजा का दस्तूर ही है कि जब भी कोई नई स्त्री मिलती है तो पहले कुछ महीने तो वह उसके साथ चिपका रहता है। फिर, धीरे-धीरे महाराजा का आर्कषण उसकी ओर से कम हो जाता है। ऐसे अवसर पर महाराजा अपने सेनापति से हर दूसरे-तीसरे दिन नये-नये नक्शे बनवाकर अपने अधिकार-क्षेत्र को निहारता रहता है। हाँ, यदि कोई स्त्री महाराजा के दिल को अधिक छू जाती है या वह स्त्री किसी शक्तिशाली खानदान से संबंध् ा रखती है तो महाराजा उसके साथ बाकायदा उसके धर्म की रिवायतों के अनुसार विवाह भी करवाता है। खुद सिख होने के बावजूद उसने हिन्दू रानियों के साथ हिन्दू रीति से विवाह व मुसलमान दासियों के साथ इस्लाम रीति के अनुसार निकाह कराये हंै। अनेक दासियों पर उसने चादर ड़ालने की रस्म निभाई है। ये बात अलग है कि कइयों को पटरानी की पदवी मिली व कई महज उसकी रखैल बनकर उसके हरम की शोभा और संख्या बढ़ाने तक ही सीमित रही हंै। पटरानी का पद भी महाराजा की किसी रानी के पास अधिक समय तक नही रहता है। क्योंकि महाराजा हर दूसरे-तीसरे साल नया विवाह रचा लेता है। इस तरह पुरानी से छीनकर नई बनी रानी को पटरानी या महारानी की पदवी बख़्श दी जाती है।
मोरां के आने से यद्यपि महाराजा की दूसरी रानियों में दिलचस्पी कम हो गई है। इसलिए मोरां से दूसरी रानियों को शिकायत तो जरूर है पर जलन किसी को नहीं है। क्योंकि महाराजा न तो मोरां को राजमहल में लेकर आया है और न ही उसे हरम का हिस्सा बनाया है। इसके साथ ही वे सोचती हैं कि मोरां कंचनी तो एक वेश्या है, गंदा खून। एक कंचनी की औलाद, कब तक महाराजा के पास टिककर रह सकेगी ?’’
दो तीन साल तो पलक झपकते ही बीत गए। समय कैसे पंख लगाकर उड़ गया, इसका किसी को इल्म या अहसास नहीं हुआ।
अगस्त का महीना होने के कारण न तो गर्मी है और न ही सर्दी। मोरां का दिल सैर करने को हुआ। महाराजा ने तुरन्त गणेशमुखी लखिया हाथी जिसके शृंगार व दुशालों की कीमत 1.5 लाख थी, मंगवाया व अपने साथ मोरां को छत्र के नीचे बिठाकर लाहौर की सैर करवाने चल पड़ा। मकानों पर ताज़ा की गई सफे़दी और दुकानों को विशेष तौर से सजाया गया देखकर मोरां ने महाराजा से इसका कारण पूछा। महाराजा ऐसे जोश में आकर बोलने लगा कि जैसे वह पहले ही बताने को बेताब हो, “अब से कुछ दिन बाद अगले महीने नवंबर में मेरा जन्मदिन है। आज से लगभग 31 साल पहले मेरा जन्म मेरे ननिहाल बड़रुखां गांव1⁄4कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुजरांवाला में महाराजा रणजीत सिंह का जन्म हुआ था, पर ठोस प्रमाण दोनों ही स्थानों के बारे में प्राप्त नहीं होता1⁄2 में हुआ था। जानती हो जब मेरी माता का जन्म हुआ था तो फूलवंशी राजा सुखचैन के सुपुत्र यानि मेरे नाना गजपति सिंह ने सनातनी प्रथा के अनुसार मेरी माता को जन्म लेते ही जीवित धरती में दबा दिया था। एक महापुरूष बाबा गुदड़ जी ने मेरी माता को बाहर निकाला तथा मेरे नाना को लाहनतें देते हुए बताया कि इस लड़की की कोख से एक महाबली पैदा होगा। बाबा जी की वह भविष्यवाणी सच साबित हो गई है। मेरे जन्म दिवस पर सारा लाहौर खुशी में झूम उठता है। मेरी प्रजा सुख की नींद सोती है और ढोल माहिया गाती है। लोग मेरे राज को रामचंद्र, इंद्र और विक्रमादित्य के राज से भी सर्वोत्तम मानते हंै। मैंने सिक्ख राज स्थापित किया है, लेकिन मुगलों की तरह धार्मिक कट्टर नहीं बना। मैंने जबरन किसी का धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। सभी धर्मो के लिए मेरे मन मंे पूरी श्रद्वा है। अपने जन्म दिन के पवित्र अवसर पर मैं मंदिर में जाकर हवन करवाता हूँ, माथे पर चंदन व केसर का तिलक लगवाता हँू। पीरों की दरगाह पर चादर चढाकर आता हूँ। दरबार साहिब में खुशी के लिए खोले गये अखंड़ पाठ के भोग की अरदास में शामिल होता हूँ। इसके बाद मैं गरीबांे को रूपये-पैसे व कपड़े आदि ज़रूरत की चीजें दान किया करता हूँ। पिछले साल जागीरों के अलावा बारह लाख रूपये मैंने दान पर खर्च किए। इस मुबारक दिन पर मैं कैदियों की सज़ा माफ़ कर देता हूँ या कम कर देता हूँं।“
उमंग में भरा महाराजा चुप करने का नाम न लेता यदि मोरां बीच में न टोकती, “अच्छा महाराज, धूमधाम से जन्मदिन तो आप पहले भी मनाते आए हंै, पर इस बार आपके जन्मदिन के जश्न अलग ही होंगे। आप उम्र भर याद रखेगें।“
“वो कैसे?“ महाराजा ने उत्सुकता प्रकट की।
“इस बार मोरां कंचनी आपके जन्मदिन की रात ऐसा नृत्य करेगी कि इतिहास के पन्ने भी उसको कभी भूल नहीं पाएँगें। आपके कानों को मेरे घुंघ् ारूओं की छनछनाहट में बशीरा बिल्लो 1⁄4उस समय की प्रसिद्व गायिका1⁄2 की आवाज़ फीकी व बेसुरी लगेगी।“
महाराजा ने प्रसन्न होकर शरारत में आकर भरे बाजार के बीच मोरां को अपनी बांहों में कसकर उसकी गाल पर दांतों से काट लेता है।
मोरां नखरा दिखाती हुई महाराजा की छाती में हल्की-सी मुक्की मारते हुए कहती है, “हटो न महाराज, क्या करते हो… बहुत सताते हैं आप ? बंदी कितनी बार कह चुकी है कि प्यार किया करो, जबरदस्ती नहीं…।“
“मैं क्या करूँ, हमलावरों और अफगानों ने मुझे जबरदस्ती करने की आदत ड़ाल दी है, मोरां। इसके साथ ही बचपन से सिक्ख रियासतों के गृहयुद्ध देखता आया हूँ।“ महाराजा मूंछो को ऐठने लग जाता है।
महाराजा के जन्म दिवस पर दस्तूरन किये जाने वाले सभी काम पहले की तरह ही सम्पन्न हुए। सिर्फ़ एक बात अलग हुई कि इस बार सब रस्मों में महाराजा के साथ मोरां ने भी शिरकत की। आज तक यह सौभाग्य महाराजा की किसी भी रानी को प्राप्त नहीं हुआ था। पहले महाराजा अपने हाथों दान किया करता था। इस बार अलौलिक घटना घटी कि महाराजा ने अपनी बजाए सारा दान-पुण्य मोरां के मुबारक हाथों से करवाया। हर जगह मोरां महाराजा के पीछे लैला घोड़े पर बैठकर उसके साथ जाती रही। महाराजा ने लाखे रंग का 16 मुट्ठी यह घोड़ा पेशावर के हाकिम सुल्तान मुहम्मद बारकज़ई से बहुत ही जद्दोजहद के बाद जबरन प्राप्त किया है। इसके साज बेशकमती रत्नों से जड़े हंै तथा महाराजा के बिना किसी दूसरे को इसकी सवारी करने की अनुमति नहीं है।
इस ख़बर का पता लगने पर सारे शाही महल में हलचल मच गई। सबको महाराजा के इस कार्य का बेहद दुःख हुआ। रानी दातार कौर को तो मानो सातों कपड़ों में आग लग गई। जब सालगिरह के अगले दिन महाराजा महल में वापिस आया तो दातार कौर महाराजा को बहुत गुस्सा हुई। पाँच-सात मिनट तक तो महाराजा दातार कौर की बातें सुनता रहा, लेकिन फिर उससे बर्दाश्त नहीं हो पाया और उसनेे उल्टे हाथ से जोरदार थप्पड़ दे मारा। जिससे दातार कौर कई गज दूर जा गिरी। क्रोध में आकर महाराजा ने रानी दातार कौर को महल से निकाल दिया तथा शेखूपुरे भेजकर गुजारे के लिए ज़मीन बख़्श दी।
इस घटना के बाद महाराजा मोरां को और भी अधिक चाहने लगा। महाराजा को शिकार खेलने का बहुत शौक है। गर्मी के दिनों मंे वह अध् िाकांश समय शिकार खेलने या झीलों के किनारे गुजारना पंसद करता है। रफ्ता-रफ्ता महाराजा के लगभग सभी कार्यों में मोरां हाथ बंटाने लगी। कई बार तो महाराजा मोरां के साथ घुड़दौड़ का मुकाबला भी करता है। मोरां फिरंगी औरतों की तरह खुले स्वभाव वाली ही नहीं, महाराजा की तरह तेज़ दिमाग भी है। पठान स्त्रियों की तरह दलेर व अरबी औरतों की तरह सुन्दर तो है ही। महाराजा को मोरां के साथ समय गुज़ारना अच्छा लगता है।
महाराजा शाही किले में कम ही आता है।
मोरां की माँ की तबीयत अचानक खराब हुई तो उसकी तीमारदारी के लिए मोरां ने महाराजा से कुछ दिन हीरा मंड़ी में जाने की अनुमति मांगी। महाराजा ने कोई एतराज नहीं किया क्योंकि उसने खुद भी अपनी दूरस्थ रियासतों का जायजा लेने के लिए बाहर जाने का मंसूबा बनाया हुआ था।
रणजीत सिंह जब कश्मीर से वापिस लौटता है तो महल में महाराजा की दिनचर्या पहले जैसी हो जाती है। सुबह पाँच बजे उठकर महाराजा स्नान करके तैयार हो जाता। पूजा करके अपनी घोड़ी पर सवार होकर बाहर निकल जाता। पैदल सेना, घुड़सवार, फौज-ए-खास तथा तोपखाने का खुद मुआयना करता। पूूरे दो घंटे अपनी फौज का निरीक्षण करता हुआ महाराजा अपने सचिव को, किए जाने वाले परिवर्तनों के बारे में आदेश भी देता रहता। करीब नौ बजे अकाल सेना का निरीक्षण-परीक्षण करता हुआ घोड़े पर बैठे-बैठे ही सुबह का नाश्ता करता। इससे आधे घंटे बाद महाराजा ‘सरकार-ए-खालसा’ की बैठक बुलाता। राज प्रबंध का सारा हिसाब-किताब महाराजा को बताया जाता। चुंगी, कर, आमदनी व खर्च का सारा हिसाब-किताब महाराजा खुद करता। इसके अलावा रियासत के बाकी मसलों का निपटारा करता।
दोपहर बारह से एक बजे तक गुरुवाणी का कीर्तन सुनता। इसके बाद ‘दरबार-ए-खालसा’ लग जाता। रियासत के घरेलू मसले व फरियादियों के निवेदन या छोटे-मोटे पड़ोसी राज्यों के झगड़ों व समस्याओं का निपटारा इसी दरबार में करता।
पाँच बजे दरबार बर्खास्त करके महाराजा नाच-गाने का आंनद लेता। रात को आठ बजे भोजन करके शराब पीता और अपनी रानियों व दासियों के संग रंगरलियाँ मनाता हुआ सो जाता।
बस, यही दिनचर्या है महाराजा की कई सालों से।
कुछ दिन पश्चात महाराजा को एक नर्तकी का नृत्य देखते हुये मोरां की याद आती है। वह मोरां को आने का बुलावा भेजता है तो मोरां अपनी माँ की बीमारी का कारण बताकर न आने का बहाना मार देती है। महाराजा तड़फकर रह जाता है। वह अपने फिरंगी सिपहसालार फोर्ड व अस्तबल के जरनल ड़ोगरा सुचेत सिंह की मदद से मोरां की रिहायशगाह को जाने वाली एक सुरंग खुदवा लेता है और रात को जाकर मोरां से मिलता है। महाराजा व मोरां का खुफिया मिलन रोज़ सुरंग के रास्ते होने लगता है।
’’’
एक दिन रानी मेहताब कौर मोरां के बारे में सोचने लगती है। मेहताब कौर ने मोरां से महाराजा के मिलने के समय का लेखा-जोखा किया तो उसका मुँह फटा रह गया। मोरां को महाराजा की जि़ंदगी में आए सात-आठ साल बीत चुके हैं। इतने साल कैसे गुजर गए, किसी को पता ही नहीं चला। खुद महाराजा को इसका आभास कहाँ होना था।
महाराजा की वार्षिक आमदनी का जब लेखा-जोखा होता तो सबसे पहले कुल आमदनी का दसवाँ हिस्सा वह दान व पुण्य पर खर्च करता है।
बाकी में से चालीस प्रतिशत सरकारी खजाने में राजकीय प्रबंध व युद्व संबंधी कार्यो के लिए रखता है। शेष बचा पचास प्रतिशत वह अपनी अ ̧याशी के लिए बचाकर रखता है। इस रकम का अधिकांश हिस्सा वह शिकार, शराब व शबाब पर खर्च करता है।
मोरां को महाराजा के पास आते जब भी किसी ने देखा है तो उसे हीरों-जवाहरातों से और सोने के गहनों से लदी देखा है। मोरां महाराजा रणजीत सिंह पर पूरी तरह हावी हो चुकी है। महाराजा मोरां पर बुरी तरह से फिदा है।
लम्बे समय के बाद आज यह हुआ है कि महाराजा दरबार लगाने के बाद राज महल के जनानखाने की ओर आया है तथा दासियों के साथ बैठकर शतरंज खेलने जा रहा है। महाराजा के शतरंज खेलने का ढंग भी निराला है। हरम के विशाल भवन में धरती पर शतरंज का खाका बना हुआ है। मोहरों की जगह दासियाँ व रानियाँ खड़ी होती हैं। एक तरफ महाराजा अपनी मनपंसद उन दासियों व रानियों को खड़ी करता है, जिनके साथ उस रात उसे भोग-विलास की इच्छा होती है। शतरंज की दूसरी ओर वे दासियाँ व रानियाँ खड़ी होती हैं जो बच जाती हैं। महाराजा के खिलाफ़ वह रानी खेलती है, जो रात में महाराजा के साथ हम-बिस्तर होने की इच्छुक होती है। महाराजा की तरफ वह रानी या दासी राजा वाले स्थान पर खड़ी होती है, जिसके साथ महाराजा रात गुजारने का इच्छुक होता है। अगर महाराजा जीत जाए तो वह अपनी तरफ वाली रानी से रास-लीला रचाता है। यदि महाराजा हार जाए तो उसके विरूद्व खेलने वाली रानी के लिए महाराजा को वह रात सुरक्षित रखनी पड़ती है। महाराजा चैपट भी इसी प्रकार खेलता है। आम तौर से दातार कौर ही महाराजा के खिलाफ खेलती थी व हमेशा महाराजा से जीत जाया करती थी।
लेकिन आज महाराजा के विरूद्व खेलने वाली रानी कोई नहीं है। शतरंज में सब दासियाँ अपनी-अपनी जगह खड़ी हो जाती हैं तो मेहताब कौर झट से महाराजा की तरफ रानी वाली जगह खड़ी हो जाती है। क्योंकि वह जानती है कि महाराजा जीत जाएगा। महाराजा मुस्कराकर मेहताब कौर की ओर देखता है। मेहताब कौर मंद-मंद मुस्कराते हुए मजाक करती है कि “महाराज, आज किसके विरूद्व खेलोगे ? अब तो माई नकैण 1⁄4रानी दातार कौर1⁄2 भी नहीं है।“
महाराजा घुटने पर हाथ की कुहनी रखकर अपने दायें हाथ के अंगूठे व अंगुलियों के बीच अपना मुँह टिका लेता है। “हूँ… यही सोच रहा हूँ।“ महाराजा मोरां के बारे में सोचने लगता है, क्योंकि वह हमेशा शतरंज में महाराजा से जीतती रही है। महाराजा का उखड़ा हुआ ध्यान देखकर मेहताब कौर एक दासी को आँख के इशारे से महाराजा को शराब पिलाने के लिए कहती है। महाराजा शतरंज खेलने का इरादा बदलकर दासियों व रानियों से कल्लोल करने लगता है। जब महाराजा की आवाज़ लड़खड़ाने लगती है तथा वह नीम-शराबी हो गया लगता है तो मेहताब कौर जसवाली रानी राम देवी की मदद से महाराजा को अपने कमरे मे ले जाती है। जैसे ही, वह महाराजा को दासियों के सहयोग से बिस्तर पर लिटाती है तो महाराजा नशे में बेसुध होकर सो जाता है।
कुछ घंटो के बाद जब महाराजा जागता है तो देखता है कि मेहताब कौर पलंग के साथ उसके पास बिल्कुल नग्नावस्था में खड़ी है। मेहताब कौर की आँखों में कामवासना छलकती देखकर महाराजा उसकी ओर हाथ बढाता है। महाराजा का हाथ पकड़कर मेहताब कौर उसके ऊपर लेट जाती है। वह महाराजा के चोगे को खोलकर उसकी छाती व गर्दन पर भोग-विलासी भावनाओं के साथ अपने होंठों के चुम्बनों की बौछार लगा देती है। इस तरह करती मेहताब कौर के “हूँ…हाँ…ऊँ…“ की सरूरमयी हुंकार सुनकर महाराजा की कामेच्छा भी भड़क पड़ती है। वह मेहताब कौर की बेपर्दा पीठ पर हाथ फेरने लगता है। मेहताब कौर महाराजा के बायें हाथ को अपने दायें व दायें हाथ को अपने बायें हाथ से पकड़कर महाराजा के पंजों की अंगुलियों में अपनी अंगुलियों को फंसा लेती है। महाराजा को चूमना छोड़कर मेहताब कौर गरूर से कहती है, “क्या उस मोरां कंचनी में उससे ज्यादा ज़ोर है, जो वह दिन रात आप को दबोचे रखती है ?“
मोरां का नाम सुनकर महाराजा का नशा उतर जाता है।
“आपने ज़मान शाह दुर्रानी को ललकारते हुए एकबार कहा था कि, ‘ऐ अब्दाली के पोते बाहर निकल, देख चड़त सिंह का पोता आया है। मेरे साथ दो-दो हाथ कर, सरदार बहादुर अगर आप चड़त सिंह के पोते हंै तो मैं भी जय सिंह कन्हैया की पोती हूँ, मेरे साथ बिस्तर-युद्व करो।“
मेहताब कौर की चुनौती सुनकर रणजीत सिंह जोश में आ जाता है तथा पल्टी मारकर वह आलिंगनबद्व मेहताब कौर के ऊपर हो जाता है।
हवा के तेज़ झोकें से कमरे की खिड़की खुलती है तथा ठंड़ी-ठंड़ी हवा पसीने में तर मेहताब कौर व महाराजा के पसीने को सुखाने का यत्न करती है। मेहताब कौर निढ़ाल हुई पड़ी रहती है। महाराजा उठता है और कपड़े पहनकर बाहर जाने लगता है।
“कहाँ जा रहे हो आधी रात का ?“ मेहताब कौर अपने नग्न शरीर पर चादर लपेटते हुए पूछती है।
“कहीं नहीं, मैं ज़रा सैर करने जा रहा हूँ।“
“मुझे पता है, ज़रूर उस कंजरी के पास जा रहे हो… उसमें ऐसा क्या है जो मुझमें नहीं है ?“ मेहताब कौर फंुफकारती है।
महाराजा गुस्से में लाल हो कर कहता है, “बकवास न कर, तेरा काम हो गया है। अब तूने मुझसे क्या लेना है ? मैं चाहे जहाँ जाऊँ। एक राजा के और भी फजऱ् होते हैं, क्या सारे काम तुझसे पूछकर किया करू ?“
“कान खोलकर सुन ले, फिर कभी उसको कंजरी न कहना, वह रणजीत सिंह की मुहब्बत है।“ बाहर जाता हुआ महाराजा कहता है।
मेहताब कौर चुप हो जाती है और महाराजा के जाने के बाद चादर में मुँह छिपाकर रोने लगती है।
महाराजा झुंझलाहट भरा मन लेकर मोरां के पास पहुँचता है। मोरां से भी वह कुछ देर बेरूखी से पेश आता है।
महाराजा का उखड़ा हुआ मन देखकर मोरां उससे इसका कारण पूछती है। महाराजा सब सच-सच बता देता है। मोरां मेहताब कौर की गर्दन दबाने का कोई हल अपने दिमाग में सोच रही होती है कि महाराजा की दायीं आँख में दर्द शुरू हो जाता है, क्योंकि उसकी बायीं आँख खराब होने के कारण नज़र का सारा ज़ोर दायीं आँख को ही झेलना पड़ता है। महाराजा पीड़ा से कराहने लगता है तथा आँख को मसल-मसलकर लाल कर लेता है। मोरां महाराजा की दोनों आँखों को गुलाब जल से धोकर, सूती कपड़े को सांसो की गर्माहट से गर्म करके महाराजा की आँख की सिकाई करने लग जाती है। कुछ ही पलों में महाराजा को कुछ राहत महसूस होने लगती है। महाराजा दासियों को फ़क़ीर अज़ीज-उद-दीन को बुलाने के लिए कहता है।
मोरां महाराजा के प्रति अपना स्नेह प्रकट करते हुए कहती है, “महाराज, इस समय आपको अपने अहलकार की नहीं बल्कि वैद्य की ज़रूरत
है।“
“इसीलिए तो मैं फ़क़ीर को बुला रहा हूँ, उसके पिता गुलाम
मुहीद-उद-दीन ने उसे यूनानी उपचार की विधियाँ सिखा रखी हैं। वह अच्छी तरह से जानता है, मेरी आँख की बीमारी को। लाला हाकम राय से उसने विद्या सीखी है।“
महाराजा का संदेश मिलते ही फ़क़ीर अज़ीज-उद-दीन एक थैला लेकर महाराजा के पास मोरां के कोठे पर आ पहुँचता है। वह महाराजा की आँख में कोई तरल पदार्थ ड़ालता है तथा दवा की एक पुडि़या देता है। महाराजा पानी की जगह शराब में घोलकर उसे पी लेता है तथा फ़क़ीर को चले जाने के लिए कहता है। अज़ीज-उद-दीन वहाँ से चला जाता है।
महाराजा की आँख का दर्द तुरन्त मद्वम पड़ जाता है। महाराजा लेटते ही सो जाता है। मोरां रातभर महाराजा के सिरहाने बैठकर हाथवाले पंखे से हवा करती रहती है।
प्रभात होने पर जब महाराजा की आँख खुलती है तो वह देखता है कि मोरां जम्हाई लेती हुई उसे पंखे से हवा दे रही है। मोरां की आँखों में नींद की बोझलता दिखाई देती है। नींद न लेने से मोरां की सूजी हुई आँखें देखकर लेटा हुआ महाराजा उठकर बैठ जाता है और कहता है, “मेरी जान, क्या बात है ? तू सोई नहीं सारी रात ?“
“आप बीमार हों तो मैं कैसे सो सकती हूँ ? आपको किसी समय भी मेरी जरूरत पड़ सकती थी। अगर मैं सो जाती तो आपका ख्याल कौन रखता ? आपको तो पता ही है, मेरी नींद का, सोते समय मुझे कोई सुध-बुध नहीं रहती, चाहे कोई सिरहाने खड़ा होकर नगाड़े बजाता रहे… मेरी छोड़ो आप अपनी सुनाओ, अब आँख का क्या हाल है ?“
“हाँ, अब ठीक है, दर्द तो बिल्कुल नहीं रहा। मैं फिर भी बिअंखी 1⁄4महाराजा का इतालवी ड़ाक्टर1⁄2 को दिखा लूँगा।“
मोरां महाराजा के दोनांे गालों पर अपने मुलायम हाथों की हथेलियाँ रखकर उनकी आँख में आँखें ड़ालकर प्यार दर्शाती है। महाराजा मोरां की दोनों कलाइयाँ पकड़कर उसके हाथ चूमता है।
“हाय, अ…ल्…ला।“ मोरां महाराजा के हाथों से अपने हाथ एक झटके में छुड़ा लेती है तथा पलकें झुकाकर लज्जाने का ढोंग करती है, “मैं मर जाऊँ, ये क्या करते हो ? मेरा फजऱ् आपकी कदमबोशी करना है। महाराज
आप भी बड़े वो हैं, कभी-कभी मुझे मरने जैसी कर देते हो।“
“ओ हो, मोरां मरें तेरे दुश्मन, तुझ में तो मेरी जान बसती है।“
मोरां महाराजा की गोद में सिर रखकर लेट जाती है, “महाराज
आपके आगोश में आकर कितना सुकून मिलता है, इसे मैं लफ़्जों में बयां नहीं कर सकती। मैं अपने आपको बहुत सुरक्षित अनुभव करती हूँ, आपकी बांहों में
आकर।“
“मोरां, तुझे देखकर मुझे भी जन्नत का दीदार हो जाता है।“
महाराजा मोरां के नहले पर दहला मारता हुआ अपने बांये हाथ से मोरां के बाल प्यार से पीछे की ओर करता है तथा दायें हाथ की अंगुली से सांप की पद-चाल जैसी लकीर मोरां के माथे से खींचता हुआ उसके नाक तक ले जाता है। नाक से होती हुई महाराजा की अंगुली मोरां के बायें रूखसार पर पंजाब का नक्शा बनाती हुई उसके होठों पर गश्त करने लगती है। शरारत करने के लिए मोरां महाराजा की अंगुली अपने दांतों मंे दबा लेती है। फिर, दोनों हाथों से पकड़कर अपने मुँह से अंगुली निकालती हुई पूछती है, “कहो तो खा जाऊँ ?“ “अंगुली क्या चीज है ? सारे को निगल जा चाहे, तुझे इंकार करता हूँ मैं ?“ महाराजा मोरां से अंगुली छुड़ाकर उसके पेट पर हाथ फेरता हुआ कमर तक ले जाता है। कमर से महाराजा का हाथ मोरां की चोली से होता हुआ उसकी छाती की ओर यात्रा आरम्भ करता है तथा महाराजा के हाथ से चोली सिमटती हुई ऊपर को आने लगती है। जब महाराजा का हाथ उसकी नाभि तक पहुँचता है तो मोरां उठकर महाराजा के सीने से लगकर उसे अपनी कोमल कलाइयों से जकड़ लेती है। महाराजा मोरां को आलिंगन में लेकर पलंग पर गिराकर उसमें अभेद हो जाता है।
नग्न मोरां वस्त्र रहित महाराजा की बांह को सिरहाना बनाकर लेटी हुई होती है, नींद से उसकी आँखें बंद होने लगती हंै तथा वह आँखें खोले रखने का संघर्ष करती है। महाराजा छत को टिकटिकी लगाकर निहार रहा होता है। सही मौका देखकर मोरां अपना दांव खेलती है, “महाराज, क्या सोच रहे हैं ? मेहताब कौर के बारे में ?“
महाराजा ठिठककर मोरां की ओर देखता है। वास्तव में, सोच तो वह कुछ भी नहीं रहा होता लेकिन मेहताब कौर का जिक्र आने पर उसे मेहताब कौर की याद आ जाती है। उसका सारा मजा किरकरा व मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है। महाराजा मोरां की बात का कोई जवाब नहीं देता। मोरां कुछ पल महाराजा के उŸार का इंतजार करके अपनी बात फिर शुरू करती है, “महाराज, कनीज की जान बख्शी करें तो दिल का एक भेद आपके साथ सांझा करूँ ?“
“हाँ-हाँ, मेरी जान-ए-जिगर बेख़ौफ फरमाओ।“ महाराजा अपनी बांहो में लपेटकर मोरां को अपनी छाती पर लिटा लेता है। मोरां जानबूझकर कुछ देर चुप रहती है। इससे महाराजा की उत्सुकता और बढ़ जाती है, “ड़रो मत मोरां, कहो जो तुम्हारे दिल में है।“
“महाराज, मेरी क्या औकात थी, मुजरे करके अपना पेट पाल रही थी। मेरी माँ भी नर्तकी थी, शायद उसकी माँ भी… मौला जाने हमारा खानदान कबसे इस जलालत भरे धंधे में है। आपने ज़र्रानवाज़ी की मेरे ऊपर। आप जैसे पारस से रगड़कर मैं लोहे से सोना बन गई। आपने मुझे सातों बहिश्त से नवाज़ा है। महारानियों जैसा मेरे साथ सलूक करते हो…“ बोलती-बोलती मोरां महाराजा की प्रतिक्रिया देखने के लिए चुप हो गई। महाराजा की नम हो गई आँखों को देखकर मोरां को यकीन हो गया कि महाराजा भावुक हो गया है। वह अपना किस्सा कहना जारी रखती है, “एक सच्ची मुसलमान स्त्री होने के नाते मेरा फजऱ् बनता है कि आपके खाये नमक की कीमत अदा करूँ, नहीं तो परवरदिगार मुझे दोज़ख की आग में फेंकेगा।“
“साफ साफ बता मोरां, मैं तेरा मतलब नहीं समझा ?“
“मेरा कहने का मतलब है कि आपने कभी सोचा है कि मेहताब कौर के साथ आपका विवाह क्यों हुआ ?“
“नहीं, क्यों ?“
“इसके पीछे एक गहरी साजिश छिपी हुई है। महाराज, कन्हैया रियासत वालों से शुक्रचक्क वालों की चढाई बर्दाश्त नहीं होती थी। साथ ही आपकी व उनकी दुश्मनी तो कई पुश्तों से चली आ रही है। आपके खानदान को तबाह करने के मकसद से कन्हैया रियासत वालो ने मेहताब कौर का विवाह आपके साथ किया है, ताकि वे आपके अंदरूनी भेद लेकर आपके वंश का सर्वनाश कर सकंे।“
मोरां की बात को महाराजा लापरवाही से लेते हुए कहता है, “नहीं, नहीं, मोरां, तुझे गलतफहमी है, दरअसल हमारे परिवार ने यह रिश्ता दोनांे के एकजुट होकर ताकतवर बनने के इरादे से तय किया है।“
“लेकिन मैंने तो सुना है कि कई बार कन्हैया रियासत व शुक्रचक्कीया रियासत के बीच झड़पें हो चुकी हैं। 1784 ई. में शुक्रचक्कीया, भंगी व रामगड़ीया रियासतों ने राजा संसार चंद कटोच की फौजों के साथ मिलकर गांव अंचल, बटाला के नजदीक कन्हैया रियासत के जय सिंह पर हमला बोल दिया था, जिसके परिणामस्वरूप् जय सिंह का बेटा गुरबख्श सिंह यानि मेहताब कौर का पिता आपके पिता महा सिंह के हाथों मारा गया था ?“
“ये तो तूने सही सुना है, पर हमारा रिश्ता तो इससे भी पहले तय हो गया था। उस समय मेरी उम्र मुश्किल से लगभग छः साल की थी।“
“यही बात तो मैं आपको समझाना चाहती हूँ। क्या आपने कभी सोचा है कि अपने पिता के कातिल के पुत्र के साथ ही मेहताब कौर ने विवाह क्यों करवाया है ? आप नहीं जानते, आपकी सास सदा कौर बहुत शातिर औरत है। जिस व्यक्ति ने उसे विधवा किया, उसने उसी के बेटे से अपनी बेटी का विवाह क्यों किया ? अपने पति गुरबख्श के क़त्ल के बाद गुस्से में आकर उसे अपनी बेटी का रिश्ता तोड़ देना चाहिए था। ज़रा सोचो महाराज, आप उसकी जगह होते तो आप क्या करते ? वे दोनों माँ-बेटी अंदर से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही हंै। उसके अंदर बदले की भावना है। वे ज़ख्मी नागिनें हंै। वे आपको तबाह करके अपना इंतकाम लेना चाहती हैं। बूढा जय सिंह कुछ कर नहीं सकता था और सदा कौर स्त्री होने के कारण आपके साथ टक्कर नहीं ले सकती थी। फिर बदला कैसे लेते ? उन्हांेने इस काम के लिए मेहताब कौर का उपयोग किया है। बुद्विमान व्यक्ति कहते हैं कि मैह न लइये मंड़ी की ते धी न लइये रंड़ी की 1⁄4भैंस न लंे मंड़ी की, धी न ले रंड़ी की1⁄2 दोनांे ही नफ़े की जगह नुकसान करती हैं।“
“मोरनी !, ये तो मंैने कभी सोचा ही नहीं।“ महाराजा गम्भीर सोच में डूब जाता है।
“अगर आप चड़त सिंह के पोते हैं तो मैं भी जय सिंह की पोती हूँ…“ मेहताब कौर का बोला हुआ यह वाक्य बार-बार रणजीत सिंह के कानों में गूंजने लग जाता है। मोरां की फेंकी चिंगारी कुछ ही देर में शोले बन जाती है। महाराजा तेज़ी से उठकर कपड़े पहनता है। मोरां फुर्ती से उसके बाजू पर कोहिनूर हीरा बांध देती है तथा महाराजा को कलगी लगी पगड़ी लाकर उन्हंे देती है। महाराजा पगड़ी सिर पर धारण करके अपनी तलवार उठा लेता है। मोरां उसे रोकने की जगह ‘खुदा हाफिज’ कहकर विदा कर देती है।
सुरंग से बाहर निकलते महाराजा व उसके सिपाहियों के घोड़ों की टाप सुनकर मोरां खिड़की में से देखती है। जब महाराजा उसकी आँखों से ओझल हो जाता है तो मोरां बेमतलब ही अकेले ऊँची आवाज़ में पागलों की तरह हँसती है। वह हँसती जाती है… हंसती जाती है… और फिर अचानक उसकी हँसी रोने में बदल जाती है !…
किले में दाखि़ल होते ही महाराजा गुस्से से आग-बबूला होकर ज़ोरदार तांडव करता है। वह मेहताब कौर को चोटी से पकड़कर घसीटता हुआ महल से बाहर फेंक देता है तथा सिपाहियों को हुक्म देता है, “ले जाओ, दूर कर दो इस कमजात को मेरी आँखों से…“
सिपाही मेहताब कौर को ले जाते हैं। कुछ समय बाद गुस्सा शांत होने पर महाराजा महामंत्री को बुलाता है तथा अपनी सास सदा कौर की जागीरें ज़ब्त करने का फरमान जारी करता है। अगले ही दिन विधवा सदा कौर की ज़मीन-जायदाद ज़ब्त कर ली जाती है।
इसके बाद जिद में आकर महाराजा रोज़ सरेआम मोरां के कोठे पर जाने लग पड़ा। बाज़ार में महाराजा का हाथी खड़ा दिखाई देता तो लोग समझ जाते कि महाराजा मोरां के साथ रासलीला में मग्न है। मोरां महाराजा के दिलो-दिमाग पर बुरी तरह से छा चुकी है। महाराजा पहले की तरह कई-कई दिन शराब पीकर मोरां के कोठे पर पड़ा रहता है। अगर कोई अहलकार या करीबी उसे समझाने की कोशिश करता है तो वह भड़क जाता है।
दीवान मुहकम चंद महाराजा को रियासत के कुछ चैधरियों द्वारा ‘रक्षा-कर’ अदा न करने की शिकायत करता है तो महाराजा अपने फिरंगी जनरल गार्डनर व देसा सिंह मजीठिया पर इस मामले को निपटाने की जिम्मेदारी छोड़कर खुद मोरां से ऐश करने में लिप्त हो जाता है। गार्डनर थोड़ा मुँह-फट होने के कारण महाराजा से कहता है, “महाराजा साहिब, हमारी आयरिश लोगों की फितरत तो नहीं है किसी के मामले में दखलअंदाजी करने की, पर आपका शुभचिंतक होने के नाते फर्ज़ बनता है कि मैं आपको, आपके अच्छे-बुरे से सचेत व आगाह अवश्य करूँ।“
“बेझिझक बोल गार्डनर…।“ महाराजा ने हाथ को ऊँचा उठाकर जाम हवा में उछाला।
27 मोरां का महाराजा
“महाराज, आप वेश्या के कोठे पर बैठे जंचते नहीं, इसमें आपकी इज्ज़त को बट्टा लगता है। आप राज महलों या खास निजी रिहायशगाहों पर अ ̧याशी करते अच्छे लगते हैं।“
गार्डनर की कही बात महाराजा के दिल को लग जाती है। उसे पता चलता है कि मोरां की माँ की सेहत आये दिन ज्यादा बिगड़ती जा रही है। महाराजा कुछ चोटी के हकीमों के अलावा अपने एक अंग्रेजी डाॅक्टर हार्वी को मोरां की माँ के इलाज पर लगा देता है। मोरां की माँ के मर्ज़ को कुछ ही दिन में फर्क़ पड़ने लगता है। माँ के ठीक होते ही महाराजा फिर से मोरां को उसी हवेली में वापिस ले जाता है और वहाँ पर सब कुछ पहले की ही तरह चलने लगता है।
महाराजा का प्यार मोरां से घटने की बजाये आये दिन बढता ही जा रहा है। महाराजा का जब दिल करता, वह मोरां के पास चला जाता। धीरे-ध् ाीरे हालात ऐसे पैदा हो गए कि अगर महाराजा को लाहौर से अमृतसर या किसी अन्य जगह भी जाना होता तो लाहौरी या दिल्ली दरवाजे़ की जगह महाराजा का घोड़ा अपने आप ही मोरां की हवेली की ओर मुँह कर लेता। फिर महाराजा भी घोड़े को न रोककर तथा अपने सब काम-धंधे छोड़कर मोरां के पास जाकर रंगरलियाँ मनाने लगता।
अब महल की ओर महाराजा को आकर्षित करने वाला कोई खास शख्स नहीं है। मोरां अपनी मनमर्जी करने लगती है तथा अपने मन की ही चलाने लग जाती है। महाराजा के साथ सैर, शिकार व मज़लिसों में तो बहुत समय पहले ही शिरकत करने लगी थी। लेकिन अब मोरां ने महाराजा के प्रशासनिक कार्यांे में भी दख़लअंदाजी करनी प्रारंभ कर दी है। मुसम्मन बुजऱ् की जगह दरबार अब मोरां की हवेली में लगने लगा है। फरियादी राज दरबार की जगह अपनी दरख्वास्तें मोरां के दरबार में पहुँचाने लगे हैं। यहाँ तक कि कई बार तो मुकदमों के फैसले भी मोरां खुद ही सुना देती तथा महाराजा इस पर कोई एतराज न करता। मोरां की शान के खिलाफ़ जो सिर उठाता, मोरां अपनी चालों से उसे कुचल देती। मोरां ने दरबार के कई ओहदेदारों को ऊँची पदवी से हटवाकर छोटी पदवी पर लगवाया, वहीं कई व्यक्तियों को कंगाल से अमीर भी बनवाया। हुक्म महाराजा सुनाता लेकिन उसमें से बोलती मोरां ही।
मोरां की सरकारी कामकाज में दख़लअंदाजी से तंग आकर दरबार में मंत्रियों, जनरलों व अहम अहलकारों ने एक सभा बुलाई तथा फैसला किया कि मोरां को मनमर्जी करने से रोका जाए। सब मोरां से दुःखी होकर उसकी नाक में नकेल ड़ालना चाहते हंै। सबने ये फैसला किया कि मोरां के पंजे से महाराजा को किसी भी तरह निकाला जाए। कोई मोरां को उसकी औकात से वाकिफ़ करवाए तथा महाराजा को समझाए कि वह कुर्बानियों और मेहनत से बनाये सिक्ख राज को संभालने की ओर ध्यान दे। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? बात इस मोड़ पर आकर अड़ जाती है। राज कौर व मेहताब कौर के बुरे हश्र के बारे में सोचकर सब चुप हो जाते हंै।
आखि़र लम्बी सोच विचार के बाद बुजु़र्ग व सम्मानीय बाबा मीर मोहकम दीन के नाम पर विचार होता है। वह समझदार व अनुभवी बुजुर्ग होने के साथ-साथ महाराजा का करीबी भी है तथा महाराजा के सम्मान का पात्र भी। बाबा मीर मोहकम दीन खुद भी इस मामले में चिंतित रहता है। वह इस संबंध में कोई न कोई यत्न करने की सहमति दे देता है।
जब बाबा मीर मोहकम दीन को इस बात का पता चलता है कि महाराजा लाहौर से बाहर गया हुआ है, तो वह मोरां को अकेले में समझाने के इरादे से मोरां के पास जाता है। लेकिन मोरां उसकी एक नहीं सुनती। यहाँ तक कि बाबा मीर मोहकम दीन मोरां के पांवों में अपनी पगड़ी रख देता है। मोरां उसका अपमान करके व धक्के मारकर हवेली से बाहर निकाल देती है।
बाबा मीर मोहकम दीन सजल आँखें और भरा मन लेकर अभी हवेली से बाहर निकल ही रहा होता है कि सामने से महाराजा आ जाता है। महाराजा बाबा मीर मोहकम दीन के चरण छूकर उनसे हवेली आने का कारण पूछता है।
“आप मोरां कंचनी से ही अंदर जाकर पूछ लो।“ बाबा मीर मोहकम दीन के मुँह से भर्राई-सी टूटे शंख जैसी आवाज़ निकलती है।
महाराजा अंदर जाकर मोरां से मामले की जांच-पड़ताल करता है। “कौन था यह ?“ मोरां अपना प्रश्न दाग देती है।
महाराजा ने मोरां के कंधों पर अपने हाथ रख दिए, “यह मेरे दरबार
का कर्मचारी है, बाबा मोहकम दीन, 1799 ई. में जब मैंने लाहौर पर विजय प्राप्त की थी तो लाहौरी दरवाज़ा खोलकर मेरा स्वागत करने वाला यह पहला व्यक्ति था तथा इसी की मदद से मैं जंग जीत सका था। मैं इसकी बहुत इज्ज़त करता हूँ। इसीलिए 1801 ई. में भरे दरबार में जब मुझे महाराजा की पदवी नसीब हुई तो उसी समय मैंने मीर मोहकम दीन को ‘बाबा’ की उपाधि से नवाजा था।“
मोरां ने तेज़ी से अपनी अगली चाल चल दी। वह हाथों की कैंची मारकर महाराजा के हाथ अपने कंधों से हटाती हुई दूर चली जाती है। “ताज्जुब है, बड़े गुस्ताख और नाशुक्रे कर्मचारी पाल रखे हंै, आपने दरबार में ? ज़रा सोचो, जो शाह ज़मान केे जाते ही भंगियों का बन गया, फिर वह भंगियों से गद्दारी कर सकता है तो वह आपका हमेशा के लिए वफ़ादार कैसे हो सकता है ? जो नमक हरामी करके आपके लिए दरवाज़े खोल सकता है, वह किसी और के लिए दरवाज़े खोलने में देर नहीं लगाएगा।“
“क्या कहना चाहती हो ?“ महाराजा मोरां की बात के अर्थ पकड़ने की कोशिश करता है।
“जानते हंै, ये क्या कहकर गया है ? उसने मेरी बहुत तौहीन की है। मुझे बहुत ज़लील करके गया है। कहता है कि नाली की ईंट चैबारे को नहीं लग सकती। मैं एक वेश्या हूँ और वेश्या ही बनकर रहूँ, मुझे तो इस हवेली में से अभी भी कंजरी…कंजरी…कंजरी की आवाज़ें सुनाई दे रही हंै। क्या मैं इंसान नहीं हूँ ? मुझे इज्ज़त से जीने का हक़ नहीं है ? मुझे कहता है कि मैं आपको छोड़कर दिल्ली दरबार में मुज़रे करूँ। वहाँ मुझे भारी इनाम मिलेंगे तथा महलों में निवास होगा। महाराजा ने तो तुझे इस खंड़हर में क़ैद कर रखा है। तू कंजरी है, तभी तो तुझे महल में लेकर नहीं गया। महाराजा तो फरेबी व ढोंगी है। तुझे प्यार करता होता तो हरम में ले जाकर रखता और उसने तो यह भी कहा कि आप मेरे साथ भी राज कौर व महताब कौर वाला सलूक करेंगे। मुझे कंजरी कहा वह तो मैंने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन आपके प्रति वफ़ादार होने के कारण आपकी शान के खिलाफ़ उसने जो ज़हर उगला, वह मैं आपको बता नहीं सकती। या…अ…अल्ला वह सब सुनने से पहले मेरे कान बहरे क्यों न हो गए।“ नाटक करती मोरां ने दोनांे हाथ अपने कानों पर रखकर उन्हे बंद कर लिया।
मोरां की अदाकारी कमाल कर गई। महाराजा तैश में आ गया और गुस्से में उसने पहरेदारों को बुलाकर हुक्म दिया कि वे फौरन बाबा मीर मोहकम दीन को गिरफ्तार करके उसके सामने पेश करें।
कुछ देर बाद सिपाहियों ने मीर मोहकम दीन को ला हाजि़र किया।
मीर मोहकम दीन नम्रता के साथ हाथ बांधकर महाराजा से कहने लगा, “महाराज, आप एक संदेश भेज देते। मैं अपने आप आपकी हज़ूरी में आ जाता, इतने सिपाहियों को भेजने की क्या ज़रूरत थी ?“
“बाबाजी, यह मैं क्या सुन रहा हूँ ? क्या आपने मोरां को मुझे छोड ़कर चले जाने की सलाह दी है?“
“वो…नहीं… मैं…तो…!“
बाबा मीर मोहकम दीन को सफ़ाई देता देखकर मोरां ने बीच में ही टोक दिया, “तुम्हंे महाराज ने जितनी बात पूछी है, उतना जवाब दो।“
“बाबाजी, यह बात सही है या नहीं ?“ महाराजा ने ऊँचे स्वर में पूछा।
महाराजा के स्वभाव से वाकिफ़ होने के कारण बाबा मीर मोहकम दीन ठिठक जाता है, “हाँ, हज़ूर दुरूस्त है।“
इतनी बात सुनकर मोरां द्वारा भड़काया हुआ महाराजा क्रोध में आ जाता है और वह आगे बढकर बाबा मीर मोहकम दीन के थप्पड़ मार देता है। बाबा मीर मोहकम दीन को इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी।
“इस गलती की आपको सज़ा मिलेगी बाबा जी, आपकी हिम्मत कैसे हुई ये बात कहने की ? लाहौर सरकार अभी आपकी सारी जायदाद ज़ब्त करती है तथा इस गलती के लिए आपको दस हज़ार रूपये जुर्माना भरना पड़ेगा।“
महाराजा अपना फैसला सुनाकर रूकता ही है कि मोरां अपना हुक्म सुनाने लगती है, “यहीं पर बस नहीं है, आपसे लाहौर सरकार द्वारा बख्शी ‘बाबा’ की उपाधि वापिस ली जाती है और अनिश्चितकाल के लिए आपको क़ैद किया जाता है।“
“हाँ, जैसे मोरां कंचनी ने कहा है, उसी तरह होगा।“ महाराजा मोरां की हाँ में हाँ मिलाता है।
बाबा से सिर्फ़ मोहकम दीन रह गया वह व्यक्ति अपने सगे-संबंधियों से उधार मांगकर जुर्माना भरता है। उसे जंजीरों से जकड़कर चिनाब दरिया के किनारे राम नगर की काल कोठरी में क़ैद कर दिया जाता है।
इस घटना के बाद मोरां की दहशत सारे लाहौर में ऐसे फैल जाती है, जैसे कभी उसके हुस्न की चर्चा फैला करती थी। सारी जनता को यह
30 मोरां का महाराजा
मालूम हो जाता है कि महाराजा मोरां की अंगुलियों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बनकर रह गया है। मोरां के विरुद्ध आवाज़ उठाने का कोई साहस नहीं करता।
कुछ वर्ष बाद लोग राज कौर, मेहताब कौर के साथ हुए दुव्र्यवहार और मोहकम दीन के संग हुई अपमानजनक घटना को भूल गए।
मोरां के रूप की धार कम होने की अपेक्षा और तीखी होती जा रही है। आए दिन मोरां का दबदबा महाराजा के ऊपर बढता जा रहा है। महाराजा मोरां पर अपना सबकुछ न्यौछावर करने पर तुला हुआ है। मोरां महाराजा पर काबिज रहने के लिए कोई न कोई षड्यंत्र रचती रहती है। मोरां कई बार तो ऐसी करतूतें भी कर जाती है कि धरती के नीचे का बैल भी कांप जाता है।
महाराजा ईस्ट इंडिया कम्पनी के फिरंगी अफसरों की दावत के लिए सतलुज से चार सप्ताह बाद लाहौर वापस लौटता है। मोरां को जब महाराजा के लाहौर वापस आने की सूचना मिलती है तो वह विशेष तौर से उसके लिए हार-शृंगार करती है। उसने महाराजा के आने से पहले ही अपने हुस्न को तराश रखा है। महाराजा भी कई दिनों से ऊबा पड़ा है और उसे जल्दी से जल्दी कम करना चाहता है। महाराजा के घोड़े के हवेली में दाखि़ल होते ही मोरां अपने गहनों वाली पिटारी खोलकर किसी खास गहने को ढूँढने का नाटक करने लग जाती है।
महाराजा मोरां के पीछे से आकर उसकी पतली कमर को अपनी बांहों में कस लेता है।
“हाँ, महाराज कसकर अपने साथ भींच लो… माँ कसम, बहुत मज़ा आ रहा है। आपकी जुदाई में सूखकर तावीज़ बनी पड़ी हूँ…।“ मोरां की नशीली आवाज़ उभरती है।
मध्यम कद व सांवले रंग का महाराजा अपने से लम्बी गोरी मोरां के जिस्म को अपने शरीर के साथ कसता हुआ उसके पैर ज़मीन से ऊपर उठा देता है। महाराजा को ऐसा प्रतीत होता है मानो सतलुज से लेकर दर्रा-ए-खैबर तक का सारा इलाका उसकी बांहों में सिमट आया हो। कुछ देर ऊपर उठाये रखने के बाद जब महाराजा मोरां को नीचे उतारता है तो मोरां के बांयें कान की लव को चूमने लगता है तथा अपनी गर्म सांसो भरी फूंक मोरां के कान में फूंकता है। फूंक सीधी मोरां के दिमाग को चढ जाती है। अपने आप को ठंड़ा रखने के लाख यत्न करने के बावजूद वह उत्तेजित हुए बिना नहीं रह पाती। काम वासना उसके अंदर उबाल खाने लगती है। महाराजा लगातार फूंक मारता चला जाता है। मोरां गर्म होकर दहकने लगती है। महाराजा ने औरत में काम चेष्टा जगाने की यह जुगत कांगड़ा की एक वेश्या से सीखी है। महाराजा के हाथ मोरां के शरीर की तलाशी लेने लग जाते हैं… मोरां अपने सब्र को और अधिक बांधकर नहीं रख पाती और वह खसखस के महीन दानों की तरह महाराजा के सामने बिखर जाती है।
दोनों ही ठंड़े-शीतल होकर गिर पड़ते हैं।
मोरां अंगूरों के गुच्छे से अंगूर तोड़कर अंगूर का आधा हिस्सा अपने होठों में दबा लेती है और फिर उसी अंगूर का बाकी हिस्सा महाराजा के
31 मोरां का महाराजा
होठों से छुआती है। इस तरह, कभी तो महाराजा अंगूर दबोच लेता है और कभी मोरां अंगूर को निगल जाती है। कुछ देर यह खेल खेलने के बाद मोरां महाराजा से प्रश्न करती है, “महाराज, आप सैर-ओ-तफ़रीह से आये हंै, मेरे लिए क्या तोहफा लाए ?“
“मांग तुझे क्या चाहिए ?“
“लो, ऐसे थोड़ा होता है, नज़राना मांगकर लिया तो क्या लिया, मज़ा तो तब है जब बिना मांगे देने वाला खुद दे, उसका तो अलग ही मज़ा होता है। इश्क तो मुगल करना जानते हैं, शाहजहां ने मुमताज के मकबरे के लिए ताज महल बनवा दिया।“ मोरां महाराजा की ओर देखकर मुस्कराती हुई आँख दबाती है।
महाराजा फूलकर कुप्पा हो जाता है, “तू बात तो कर, लाहौर का नाम बदलकर मोरांवाली रख दूँ, तू भी क्या याद करेगी कि किसी सिक्ख महाराजा से इश्क किया है।“
‘‘लो, जाने दो महाराज, इतनी बड़ी गप्प नहीं मारा करते, उतनी बात की जाती है, जितना आदमी कर सकता हो। आप आज तक अपने नाम का सिक्का तो चला नहीं सके।“, मोरां के लहजे में तंज़ प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
मोरां का ताना सुनकर महाराजा गम्भीर हो उठता है, “यह बात नहीं है मोरां, मैं चाहूँ तो शाम तक दस सिक्के चलवा दूँ, सिक्के का क्या है ? अपने नाम का सिक्का तो 1763 ई. में जींद पर कब्जा करके मेरे नाना भी चलवा चुके हैं। असल में, तुझे मेरी बीती जि़ंदगी के बारे में ज्यादा पता नहीं है। जब मैं पैदा हुआ था तो उस समय मेरे ननिहाल वालांे ने मेरा नाम बुध सिंह रखा था। लेकिन मेरे पैदा होते ही कामयाबी और मैदान-ए-जंग में जीत मेरे पिता के कदम चूमने लगी। जब मेरे जन्म की ख़बर मेरे पिता को हुई तो उस समय वे चट्ठे सरदार पीर मुहम्मद से रसूलगढ जीतकर आ रहे थे। इस जीत के कारण मेरे पिता ने मेरा नाम बदलकर रणजीत सिंह रख दिया। मैं सिर्फ़ दस साल का था। जब मेरे पिता का देहांत हो गया और मैं शुक्रचक्किया रियासत का गद्दीदार बना। बाबा साहिब सिंह बेदी ने रियासत की जिम्मेवारी मुझे देते हए, ‘पंजाब का बादशाह’ बनने का मुझे आशीर्वाद दिया था। मैंने अपने पिता के अहलकार दीवान लखपत राय और दल सिंह की निगरानी में रियासत की सेवा की है। उस समय के निपुण योद्धा सरदार अमीर सिंह से मैंने शस्त्र विद्या सीखी है जिसके बलबूते आज मैं ‘शेर-ए-पंजाब’ कहलाता हूँ। बाल्यावस्था से ही मुझे धार्मिक शिक्षा देने के लिए मेरी माता राज कौर ने भाई फेरू सिंह को गुजरांवाल की धर्मशाला का ग्रंथी मुकर्रर कर दिया था। इसी कारण, सभी धर्मों के लिए मेरे मन में सम्मान है। अगर मैंने चनिओट के कारीगरों से पाँच लाख रूपया खर्च करके दरबार साहिब को स्वर्ण मंदिर में तब्दील किया है, तो मैंने विश्वनाथ मंदिर बनारस के लिए बाइस मन सोना भी दान किया है तथा पीर बहावल हक की मज़ार को भी पैंतीस सौ रूपये सालाना जागीर लगा रखी है। मेरे पूर्वज गुजरांवाला के इलाके के पशु चराने वाले मामूली चरवाहे थे और भगवान ने मुझे बादशाहत बख़्शी है। आज मेरा राज्य सतलुज से पेशावर तथा तिब्बत की सीमा से सिन्ध तक फैला हुआ है। मैंने लाहौर, पेशावर, कश्मीर व मुल्तान-चार विशाल सूबे स्थापित किए हंै। वाहिगुरू ने चाहा तो एक दिन वो भीआएगा जब दिल्ली के लाल किले पर भी ‘सरकार-ए-खालसा’ का केसरी निशान लहराने लगेगा। रणजीत सिंह की जीत का परचम हवा में लहराता होगा। दिल्ली दूर नहीं। ये सब सच्चे पातशाह की रहमतें हंै, सब कुछ उस ऊपरवाले का दिया हुआ है। फिर, मैं उसे कैसे भूल जाऊँ ? मैं आज तक सरकारी दस्तावेजों पर दस्तख़त भी, ‘श्री अकाल सहाय-रणजीत सिंह’ लिखकर ही करता हूँ, मैं ‘महाराजा’ सुनने की जगह ‘सिंह-साहिब’ सुनना अधिक पसंद करता हूँ। मैं गुरू की रज़ा को मानने वाला मनुष्य हूँ। मैं हर कार्य वाहिगुरू की ओट-आसरा लेकर करता हूँ। फिर, सब ताकतें मेरे सामने घुटने टेक देती हंै। लोहे को हाथ लगाऊँ तो वह सोना बन जाता है।“
“आपकी दियानतदारी व नेकी का यश तो सारी दुनिया गाती है। मैंने सुना है, आप किसी गरीब के घर पर अपनी पीठ पर लादकर अनाज की बोरी छोड़कर आए थे।“
‘‘कोई दो सिक्खों को इक्टठा करके दिखाये, मंैने सिक्खों की बारह रियासतों को इक्ट्ठा करके एक केन्द्रीय सल्तनत कायम की है, मैं अपने से ज्यादा अपने सतगुरू की महिमा को पहल देता हूँ। इसीलिए अमृतसर में किला गोबिन्दगढ, गुरू रामदास बाग तथा यहाँ तक कि अपने रसाले 1⁄4जत्थे1⁄2 का नाम ‘गुरू हरि-राय’ भी गुरू साहिबान के नाम पर रखा है। इसीलिए जब मंैने अपना सिक्का चलाया जो उसे ‘नानकशाही सिक्का’ नाम दिया। उसके एक तरफ गुरू नानक, बाला तथा मर्दाना जी की तस्वीर बनवाई तथा दूसरी तरफ खुदवाया ‘अकाल पुरुष जी सहाय, देगो, तेगो, फतेह, नुसरत बेदरंग। याफतज नानक गुरू गोबिंद सिंह।“
“लेकिन आप तो दूसरे शासकों वाले भी सभी शौक पूरे करते हंै। मुज़रे देखना, शराब पीना… आपकी अ ̧याशी के ड़ंके तो इगिं्लस्तान तक बज रहे हंै।“ मोरां ने महाराजा को जैसे कुछ याद दिलाने की कोशिश की।
“अगर मैं एक सिक्ख हूँ, तो एक शासक भी हूँ। मैं वो करता हूँ जो एक निपुण शासक को करना चाहिए। एक प्रौढ शासक बनने पर हुकूमत करने के लिए ये चीजें भी ज़रूरी हैं।“ महाराजा बोला।
“इसीलिए तो मंैने अर्ज़ की थी कि एक शासक होने के कारण आपको अपने नाम का सिक्का भी चलाना चाहिए।“ मोरां ने फिर तीर
चलाया।
“नहीं, मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा।“ महाराजा ने दो टूक जवाब दिया।
“चलो, अपने नाम का नहीं तो मेरे नाम का सिक्का चला दो, मैं भी मान जाऊँगी कि किसी सिक्ख महाराजा की रखैल हूँ। अगर आप ऐसा कर दंे तो कुरान की कसम, मैं तमाम उम्र शेर-ए-पंजाब के कदमों में गुज़ार दूँगी। दिल्ली गुरूद्वारा साहिब से आए ग्रंंिथयों के पैर आपने अपनी दाड़ी से साफ़ किए थे। सारी उम्र मैं आपके पैर अपनी जीभ से साफ़ करूँगी। इस बात का मैं आपको वचन देती हूँ। ये एक सच्ची मुसलमान औरत का वायदा है।“ मोरां के दिल की बात जुबान पर आ गई।
मोरां के मुँह से ये बात सुनकर महाराजा खुशी में फूल जाता है और 33 मोरां का महाराजा
हाथ से ताली बजाता है, “एक क्या, तेरे नाम के दो सिक्के चला
दूँगा।“
ताली की आवाज़ सुनकर सेवक उपस्थित हो जाते हैं।
“सिक्के ढालने वाले सारे कारीगर व लाहौर के सारे सर्राफ़ जितनी
जल्दी हो सके, मेरे पास पेश करो। जो सुनार नहीं आए, उसे गिरफ्तार करके मुश्के बांधकर ले आओ। जाओ, फौरन अमल हो।“
महाराजा की फौज कुछ ही देर में हवेली को सुनारों व कारीगरों से भर देती है। सर्राफ़ों का मुिखया सबकी ओर से महाराजा को फतेह बुलाता है, “वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह।“
“वाहिगुरू जी की फतेह…।“ महाराजा की गरजती आवाज़ सुनकर सभी कारीगर सहम जाते हैं।
“हुक्म कीजिए, सिंह साहिब ?’’ सर्राफों का मुखिया निवेदन करता है।
“लाहौर सरकार दो सिक्के जारी कर रही है। एक सोने का व एक चांदी का मोरां कंचनी की तस्वीर बनी होनी चाहिए उस पर। और साथ ही मोर पंख भी, समझे ? मोरांशाही सिक्का, कंचनी सिक्का, रातों-रात ये सिक्के तैयार होकर एक सप्ताह के अंदर-अंदर मेरे सारे राज्य में फैल जाने चाहिएँ। जाओ, कल सवेरे तक मैं सिक्के देखना चाहता हूँ।“
“लेकिन महाराज, ये कैसे संभव हो सकता है ? एक रात में इतना बड़ा काम कैसे हो सकता है ?“
“अगर नहीं हो सकता तो कल अपने परिवार वालों से कह देना कि वे तुम्हारी रोटी न पकायंे, क्योंकि तुम्हंे लाहौर सरकार सज़ा-ए-मौत तो दे सकती है।“
“महाराज रहम करो… महाराज दया करो… महाराज हमारी मजबूरी समझो… रातों-रात हम कच्चा माल कहाँ से पैदा करेंगे ?“
“शाही खजाने से सोना-चांदी, जितना चाहिए ले लो, कारीगर चाहे बाहर से मंगवाने पड़ें, मंगवाओ, लाहौर सरकार से जो मदद चाहिए, ले लो, पर सिक्का हर कीमत पर चलना चाहिए। अब तुम लोग जा सकते हो। जाओ और हुक्म बजाओ।“
सब कारीगर और सुनार पिंजरे का दरवाज़ा खुलने पर उड़ते पक्षियों की भाँति हवेली से बाहर निकलते हैं। महाराजा को मुगल बादशाहों की तरह इमारतों के निर्माण व चित्रकला से भी काफ़ी लगाव है। महाराजा ने मुहम्मद बख़्श जैसे चोटी के कुछ चित्रकारों को अपना दरबारी चित्रकार बनाया हुआ है। जो महाराजा व उसकी रानियों के चित्र बनाया करते हैं। इन चित्रकारों में से कांगड़े का एक चित्रकार हरी देव महाराजा का प्रिय चित्रकार है। हरी देव ने महाराजा व मोरां के अनेक चित्र बनाए हैं। उन चित्रों में से गहनों से लदी मोरां की एक तस्वीर देखकर कंचनी सिक्के का छापा लाहौर की टकसालों पर तैयार किया जाता है। सुबह तक सोने व चांदी के दो सिक्कों का नमूना महाराजा की मंजूरी के लिए भेज दिया जाता है। मोरां को सिक्के दिखाकर महाराजा अपनी मंजूरी दे देता है। सप्ताह भर में ही सिक्कों का चलन शुरू हो जाता है।
कुछ ही दिन में लाहौर व अमृतसर की टकसालों में बनकर मोरांशाही सिक्के सारे पंजाब, काश्मीर तथा पेशावर तक पहुँच जाते हैं। सिक्कों के जारी होने के बाद मोरां का घमंड़ लाहौर सरकार के केसरी झंड़े से भी ऊँचा हो जाता है। महाराजा अपनी रियासत के बारह नगरों के नाम बदलकर मोरां के नाम पर रख देता है। फिर, मोरांशाही गज… उसके बाद मोरांशाही नाप तोल… मोरांशाही बर्तन… मोरांशाही बाग और यहाँ तक कि मोरांशाही पकवान भी मोरां को खुश करने के लिए महाराजा अपनी रियासत में प्रचलित करवा देता है। दिन-ब-दिन मोरां का गरूर जहाँ ऊपर चढ़ता चला जाता है, वहीं महाराजा के चरित्र का अधोपतन होने लगता है।
महाराजा के सभी शुभचिंतक अपने-अपने ढंग से रणजीत सिंह को रोकने, समझाने व चैकन्ना करने का प्रयत्न करते रहते हंै, मगर मोरां के इश्क में अँधा हुआ महाराजा किसी की एक नहीं सुनता।
उधर डोगरे भाइयों ने महाराजा की खिदमत करते हुए हर संभव यत्न और कोशिशें करके देख ली हंै कि महाराजा उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियाँ दे, ईनामों व जागीरों से नवाजे़। यही नहीं जिसका महाराजा उनसे वायदा करता आया है वह ‘राजा’ का पद उन्हंे बख़्शे। डोगरे भाइयों को अपने सपने साकार होते नज़र नहीं आते और उन्हें महाराजा से नफ़रत व खार हो जाती है। जब वे किसी एक ओहदे पर अपनी काबलियत दिखाने लगते तो महाराजा उनकी किसी अन्य महकमे में बदली कर देता। दरअसल, महाराजा हर किसी के साथ ऐसा ही करता है। वह किसी एक कर्मचारी को अधिक समय तक एक काम पर नहीं रहने देता। लेकिन डोगरों को लगता है कि महाराजा यह सब सिर्फ़ उनके साथ ही करता है।
डोगरे भी राजा बनकर महाराजा की तरह अ ̧याशियाँ करने की इच्छा रखते हंै।
“पशु चोरांे की औलाद पंजाब पर बादशाहत कर सकती है तो हम क्यों नहीं ?“ रणजीत सिंह के पड़दादा नौध सिंह तथा उसका बाप बुध सिंह, जो पशु चुराने में माहिर माने जाते थे, के बारे में सोचकर डोगरे दांत पीसने लग जाते हैं। प्रसिद्व सुनार हाफिज मुहम्मद मुल्तानी का बनाया स्वर्ण जडि़त लाहौर तख़्त, जिस पर महाराजा विराजमान होता है, हमेशा डोगरों की आँखों के सामने घूमता रहता है। भविष्य के लिए चिंतित डोगरे भाइयों के दिल में महाराजा के प्रति ईष्र्या की आग जलती रहती है और वे उससे बागी होकर महाराजा को बरबाद करके खुद उसकी जगह विराजमान होने के मंसूबे बनाते रहते हैं।
ध्यान सिंह कहता है, “ये भी कोई जि़ंदगी है ? कितनी देर तक मैं ड़्योढी का पहरा देता रहा हूँूं और ये तो मेरी किस्मत ही है कि दासियों व रानियों की चापलूसी करके कुछ अहमियत हासिल कर सका हूँ।“
“तू तो फिर भी अच्छा है, मेरी ओर देख, मैं तो अभी तक घुड़सवार रसाले में ही हूँ, घोड़ों की काठियों ने तो मेरा पिछला हिस्सा ही घिसकर रख दिया है।“ गुलाब सिंह अपना दुखड़ा रोता है।
“कोई बात नहीं भाई साहब, अभी तीर निशाने पर नहीं है, निशाने से ऊपर लगाएंगे तो अगर चूक भी गया तो भी निशाने पर ही लगेगा।“
“क्या मतलब ?“
“देखता चल…“ ध्यान सिंह अपनी मुट्ठियाँ ज़ोर से भींच लेता है। ध्यान सिंह अपनी योजना के अनुसार सिक्ख पंथ की ख़ास
शख्सियतों को भड़काने के काम में लग जाता है।
“महाराजा, मोरां के साथ आठ-दस साल से बिना विवाह किए रह
रहा है जो खालसा राज में एक गुनाह-ए-अज़ीम है। लोगों की बहू-बेटियों पर बुरा असर पड़ रहा है। ना मालूम यह मोरां कौन है ? हो सकता है अफगानों की गुप्तचर हो ? हमने कितनी मुश्किलों व कुर्बानियों से सिक्ख राज हासिल किया है। हमें उसे बचाने के विषय में सोचना चाहिए। महाराजा को अपनी खराब होती छवि का ख्याल नहीं तो न सही, लेकिन उसे सिक्ख पंथ की हो रही बदनामी का ख्याल अवश्य रखना चाहिए।“
“बात तो तुम्हारी ठीक है, पर क्या किया जा सकता है ? सरकार के सामने हम क्या चीज़ हैं ?“ प्रत्युŸार में धर्म के ठेकेदार यह कहकर टाल-मटोल करते हंै, तो गुलाब सिंह अपनी चाल फिर चलता है।
“लो हद हो गई, किया क्यों नहीं जा सकता ? महाराजा सिक्ख सिद्वांतों पर भी बहुत हद तक निगरानी रखता है। पंथक सोच रखता है। अगर पाँच सिंह साहिबान अकाल तख्त से फरमान जारी करें और मुकद्मा चलाकर ऐसा करने से रोकने का हुक्म जारी करें, तो वह कहाँ भागेेगा ?“
डोगरा भाइयों की मेहनत रंग लाती है और महाराजा को ‘श्री अकाल तख्त साहिब’ पर तलब कर लिया जाता है।
‘श्री अकाल तख्त साहिब’ से जारी हुए फरमान की ख़बर महाराजा की बजाय गुप्तचरों द्वारा मोरां को पहले हो जाती है। जब महाराजा मोरां के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश करता है तो वह जान-बूझकर बेरूखी का ढोंग करती है। महाराजा मोरां के स्वभाव में आए परिवर्तन को देखकर उससे उसके उखड़ेपन का कारण जानना चाहता है तो वह नखरा दिखाती हुई बोलती है, “महाराज, लोग हमारा एकसाथ रहना क्यों सहन नहीं करते ? हमारे प्यार का कोई-न-कोई नया दुश्मन रोज़ ही पैदा हआ रहता है।“
“अब कौन सा दुश्मन पैदा हो गया ? बता, मैं उसका सिर उसके धड़ से अलग कर दूँगा।“ महाराजा अपनी तलवार म्यान में से थोड़ी सी बाहर निकाल लेता है।
“अटारी का सरदार, ये देखो आपके नाम रूक्का आया है।“
शाम सिंह अटारी का नाम सुनकर तैश में आया महाराजा ढीला पड़ जाता है और तलवार को म्यान में धकेलते हुए रूक्का पकड़ लेता है।
अकाली फूला सिंह जी के द्वारा जारी तलबनामें के बारे में जानकर महाराजा सोच में डूब जाता है।
“क्या हुया महाराज ?“ मोरां महाराजा के हाव-भाव पढ़ने के यत्न करती है।
“इसका मतलब मामला संगीन है, अटारी का सरदार ऐसे ही नहीं आया है। मोरां मुझे परसों अकाल बुंगे पर पेश होना ही पड़ेगा। मैं पंथ से बागी नहीं हो सकता।“
“इसका कोई हल ? आप तो महाराज हैं।“ 36 मोरां का महाराजा
महाराजा अपनी विवशता प्रकट करता है, “कुछ नहीं हो सकता।“
“आज और परसों के बीच कल आता है, एक दिन व एक पूरी रात। इस समय के दरमियान बहुत कुछ हो सकता है, महाराज।“
महाराजा को मोरां का संकेत समझ में नहीं आता और वह अमृतसर जाने की तैयारी करने के लिए शाही किले को रवाना हो जाता है।
महाराजा के जाते ही मोरां भी कुछ गहने व सोना लेकर अमृतसर के लिए खुफिया सफ़र शुरू कर देती है। वह महाराजा से पहले अपनी बहन मोमला के पास पहुँच जाती है, जो अक्सर दरबार साहब माथा टेकने जाती रहती है।
उधर महाराजा रणजीत सिंह एक छोटा-सा लश्कर लेकर अमृतसर को रवाना हो जाता है। अमृतसर की सीमा मंे प्रवेश करते ही रणजीत सिंह घ् ाोड़े से नीचे उतरता है और जूते उतारकर नंगे पांव दरबार साहिब की ओर चल पड़ता है। हरिमंदर साहिब पर माथा टेक आने के बाद वह बड़ी नम्रता के साथ अकाल तख्त पर दोनों हाथ जोड़कर ऐसे खड़ा हो जाता है जैसे उसके हाथों लड़ाई में दांत खट्टे करवाने के बाद दुश्मन फौज के सिपहसालार खड़े हुआ करते हैं।
दरबार साहिब के मुख्य गं्रथी के द्वारा मुकद्मे की कारवाई शुरू होती है। सवाल किया जाता है, “क्या आप मोरां के साथ अपने नाजायज़ शारीरिक संबंधांे का दोष स्वीकार करते हो ?“
“हाँ, कबूल करता हूँ, ये तो सारी दुनिया जानती है।“
“तुम्हे पता है, खालसा राज में यह एक गुनाह, एक पाप है।“
“मैं एक राजा हूँ, मंैने सिक्ख परिवार में जन्म लिया है और इसीलिए
मेरे स्थापित किए राज्य को सिक्ख राज कहा जाता है। मैंने लोगों को मुगलों व अफगानांे से भयमुक्त करवाया है। मैंने अपने आप को कभी राजा नहीं समझा तथा लोगों की सेवा एक साधारण इंसान बनकर की है। आप चाहें तो इसे सिक्ख शासक का राज कह लो, आपका दिल करे तो आप इसे खालसा राज कह लो, मेरे राज्य की सुखी हिन्दू प्रजा इसे राम राज्य कहती है। मुसलमान इसे बहिस्ती राज्य कहते हैं।“
“तुम अपने राज्य को क्या कहते हो ?“ शाम सिंह अटारी पूछता है।
“मैं इसे न्याय पालक राजा का लोक राज्य कहता हूँ, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा का जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। फिर, उस राज्य के राजा को अपनी इच्छा का जीवन जीने का हक़ क्यों नहीं ? मैं इस राज्य को बड़ी तेज़ी से बुलन्दियों पर ले जा रहा हूँ। मैं जानता हूँ, जब यह अपने शिखर पर पहुँचेगा तो फिर इसमें गिरावट आनी शुरू हो जाएगी और यह नीचे उतरना शुरू कर देगा। आप वह करें जो आपका न्याय है।“
अकाली फूला सिंह प्रश्न करता है, “क्या तुम्हंे अपने चरित्र में आ रही गिरावट की कोई जानकारी नहीं ?“
“मैं सर्वोच्च अदालत में खड़ा हूँ इसलिए बहस नहीं करूँगा, आप फैसला सुनाएँ, मुझे सिर माथे कबूल होगा।“ रणजीत सिंह सिर झुका लेता
है।
“पाँच सिंह साहिबान ने फैसला किया है कि तुम भविष्य में मोरां के
साथ अपना अवैध रिश्ता खत्म कर दो, आज के बाद उसके साथ तुम्हारा कोई संबंध नहीं होगा। अब तक किए गुनाह के लिए तुम्हें नंगी पीठ पर सौ कोड़ांे की सज़ा दी जाती ह… सज़ा मंजूर ?“
“मंजूर…“ इतना कहकर रणजीत सिंह कमरबंद सहित किरपान उतारकर दूर रखने के बाद अपना चोगा उतारता है और घुटनों के बल बैठकर शीश झुकाता हुआ अपनी नंगी पीठ अकाली फूला सिंह के सामने पेश कर देता है, “लो बांध लो मुझे टाहली 1⁄4शीशम1⁄2 के पेड़ के साथ और सजा दो।“
मौके पर उपस्थित कई सिंह महाराजा के हक़ में तर्क देने लगे और महाराजा की सज़ा माफी के लिए ज़ोर ड़ालने लगे, “महाराजा ने सज़ा कबूल कर ली है, ये महाराजा हैं, हमें इसके पद की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, प्रतीक के रूप में सिर्फ़ एक कोड़े की ही सज़ा दी जाए।“ अकाली फूला सिंह व शाम सिंह एक दूसरे के मुँह की ओर हैरान होकर देखते हैं, क्योंकि ये वही सिक्ख हैं, जिन्हांेने महाराजा को अकाल तख्त पर बुलाकर तन्खाहिया करार देने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया था। बहुसंख्यक निर्णय पर फूल चढाते हुए अकाली फूला सिंह कहता है, “तुमने सज़ा कबूल कर ली तो समझो प्राप्त कर ली, जाओ तुम्हंे तन्खाह माफ़।“
रणजीत सिंह एक लाख पच्चीस हजार रूपये का शुकराना देने का ऐलान करके दरबार साहब से बाहर आ जाता है। बाहर आकर घोड़े पर सवार होकर महाराजा अपनी फौजी टुकड़ी के साथ लाहौर की तरफ कूच कर जाता है।
ज्यों ही महाराजा अमृतसर की सीमा पार करता है तो अपने सिपाहियों को आदेश देता है, “तुम लोग किले में चले जाना, यहाँ से मैं अकेला ही आगे जाऊँगा।“
आँख झपकते ही रणजीत सिंह की घोड़ी धूल उड़ाती कहीं लुप्त हो जाती है।
उधर मोरां जो महाराजा से पहले लाहौर पहुँच जाती है, अपनी हवेली में मायूस, अपने भविष्य की चिंता में डूबी हुई है। उसकी आँखों से छमाछम आँसुओं की धारा बह रही होती है। कभी वह आँसू पौंछकर अकड़ती हुई खुद को ढाढ़स बंधाती है, “कुछ नहीं होगा, मेरी बहन मोमला ने सब संभाल लिया होगा। उसे सब जानते हैं। फिर, अगले ही पल वह अस्थिर हो जाती है तथा रणजीत सिंह का दिया हीरा निकालकर ग़ौर से देखती है। अभी वह हीरा चाटने ही लगती है कि उसके कमरे के दरवाज़े पर दस्तक होती है।
मोरां दरवाजे़ के पास जाकर सहमी-सी आवाज़ में पूछती है, “कौ?“ “मोरां मैं…।“
मोरां बिना देरी किए झट से दरवाज़ा खोलती है।
बाहर खड़े रणजीत सिंह को आश्चर्य व उल्लासपूर्ण दृष्टि में देखते
हुए उसके मुँह से निकलता है, “महाराज आप !“ खुशी के आँसुओं से भीगी इस चीख के साथ वह झपटकर रणजीत सिंह को अपनी बांहों में जकड़ लेती है। जैसे ही रणजीत सिंह मोरां के शरीर को अपनी बांहों में जकड़ उसके
38 मोरां का महाराजा
नाजुक बदन को भींचता है, मोरां की कुर्ती के सभी बटन तड़ तड़ करते हुए टूट जाते हैं।
अंतिका: इस घटना के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने शाही रिवायत के अनुसार मोरां से बाकायदा दो बार विवाह करवाया। एक इस्लाम मत के अनुसार व दूसरा सिक्ख धर्म की मर्यादा के अनुसार। मोरां ने एक पुत्री को भी जन्म दिया। कई वर्ष तक महाराजा की वासनापूर्ति करते रहने वाली मोरां को रानी गुलबानों से शादी रचाने के बाद रणजीत सिंह ने पठानकोट में भारी जागीर प्रदान कर लाहौर तथा अपनी नज़रों से सदैव के लिए दूर कर दिया।
पठानकोट के किले में मोरां अपनी अंतिम सांस तक रही। कभी-कभार दिल होता तो महाराजा मोरां के पास ठहरता तथा उसका मुजरा देखता। मोरां की लड़की से आगे चलकर एक लड़की पैदा हुई – वज़ीर बेगम। मोरां की दोहती 1⁄4नातिन1⁄2 वज़ीर बेगम से भी एक लड़की पैदा हुई – मुमताज बेगम उर्फ़ मुम्मों, जो इंदौर के महाराजा तकोजी राव तथा बम्बई के मेयर मिस्टर बावला की रखैल रही और अपने समय की प्रसिद्व नर्तकी के तौर पर जानी गई। महाराजा ने मोरां के नाम पर अनेक अन्य वस्तुओं के नामकरण के साथ साथ अतपणी रियासत के 12 गांवों का नाम भी ‘मोरांवाली’ रखा।
महाराजा रणजीत सिंह की समाधए लाहोर
39 मोरां का महाराजा
Posted by Balraj Singh Sidhu UK at 04:38 No comments:
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मोरां सरकार -बलराज सिंह सिद्धू, यू.के.

शेर-ए-पंजाबमहाराजा रणजीत सिंह अपनी रखैल मोरां कंचनी के साथ लाहौर के निकट एक हवेली में पड़ा है। उन्हें संभोग किए यद्यपि कुछ पल ही बीते हैं, परंतु उन दोनों की सांसें अभी भी लुहार की धौंकनी की भाँति चल रही हैं।
मोरां के इश्क का नशा महाराजा को फिरंगियों की शराब की तरह दिन में ही चढ़ गया है। अमृतसर के रंडी बाज़ार में नाचने वाली इस नर्तकी मोरां के इश्क में अंधा होकर उसने क्या-क्या नहीं किया है। मोरां के नाम पर मोरांशाही गज़ चलाये जो प्रचलित गज़ों से एक बिलांद बड़े हैं और मोरांशाही नापतोल जो आम नापतोल से भारी होने के कारण कुछ ही दिनों में मशहूर हो गए हैं। मोरां के नाम पर बाग लगवाये। सोने और चांदी के दो सिक्के चलाये। यह बात अलग है कि अभी तक महाराजा ने अपने नाम का एक भी सिक्का जारी नहीं किया है। यहाँ तक कि कई गांवों का नामकरण महाराजा ने मोरां के नाम पर ‘मोरांवाली’ कर दिया है। ऐसा क्या है जो महाराजा ने मोरां का साथ पाने और उसको खुश करने के लिए नहीं किया ? इतना तो कोई राजा अपनी रानी के लिए नहीं करता जितना महाराजा ने नाचने वाली एक कंजरी और अपनी रखैल मोरां के लिए किया है। यहाँ तक कि जब मोरां से मिलना कठिन हो गया था तो महाराजा ने मोरां के घर को जाने वाली सुरंग खुदवा ली थी। इसको लेकर नकलचियों, मिरासियों और कवियों न तो कविŸा भी रच लिए हैं –
होया हनेरा नित ने मिलदे महाराज ते मोरां। धरतों सुरंग कड्ढ़ लई हुशन इश्क दियां चोरां।
मेरां कंचनी के एक नर्तकी होने के कारण सिक्ख सरदारों और महाराजा के परिवार की ओर से बहुत विरोध किया गया है। पर महाराजा ने आज तक किसी की परवाह नहीं की। रानी दातार कौर और रानी महताब कौर को जब महाराजा और मोरां के संबंध अखरने लगे थे तो महाराजा ने उन्हें भी महल से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। लेकिन मोरां को दिल से नहीं निकाल सका था। फिर छिपकर चोरी से मिलने के ज़माने भी बीत गए और महाराजा सरेआम मोरां के साथ का आनन्द लेने लगा। अब तक तो महाराजा जैसे तैसे अपनी मुहब्बत के खिलाफ़ उठने वाली आवाज़ को दबाता आया है, परंतु आज तो अति हो गई। उसको अकाल बुंगे में बुलाकर अकाली फूला सिंह ने मोरां कंचनी के साथ अवैध संबंध रखने पर ‘तनखाहिया’ करार दे दिया, कोड़ों की सज़ा भी सुना दी। यह अलग बात है कि उसकी सज़ा माफ़ कर दी गई और उसने स्वयं एक लाख पच्चीस हज़ार जु़र्माना भरना स्वीकार कर लिया।
अकाल बुंगे में बैठे महाराजा ने यह निर्णय कर लिया था कि वह मोरां के साथ अपना रिश्ता तोड़ लेगा। यूँ ही बात बात पर अपनी कुŸोखानी करवाने का क्या लाभ ? पर रणजीत सिंह को क्या पता था कि लाहौर के पास आते ही उसका चंचल मन फिर भटक जाएगा। उसके कदमों को तो कभी बहते दरिया भी नहीं रोक सके थे। बेरोक, बग़ैर कुछ सोचे समझे उसने अपना घोड़ा हवेली की तरफ़ बढ़ा लिया जहाँ मोरां उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। प्रेम में पागल दो रूहें हवेली का दरवाज़ा खुलते ही आपस में लिपट गई थीं।
महाराजा और मोरां दोनों छत की ओर टकटकी लगाये कुछ सोच रहे हैं।
“महाराज, मैं एक मुसलमान स्त्री और आप सिक्ख पुरुष हो। एक पुरुष प्रधान समाज में अपने संबंधों को लेकर एतराज तो मुसलमानों को करना चाहिए और वे तो चुप हैं। आपके सिक्ख लोग यूँ ही व्यर्थ में ही उछले-कूदे जाते हैं। ऐसा क्यों ?“ मोरां महाराजा की छाती से चिपटती हुई बोलती है।
महाराजा दानिशवरों की तरह उŸार देने लगता है, “दरअसल मोरां, सिक्खों ने कभी राज नहीं किया। सैकड़ों सालों से इन्होंने सिर्फ़ लड़ना और एक-दूजे की पगडि़याँ उतारना ही सीखा है। इसलिए, हुकूमत कैसे की जाती है, इससे ये नावाकिफ़ हैं। बंदा बहादुर से सौ साल बाद केवल मैं अकेला इनका सिक्ख हुक्मरान हुआ हूँ। यही कारण है कि ये मेरी निजी जि़न्दगी पर भी अपना हक़ जताते हैं और मेरे साथ तेरे रिश्ते का विरोध करते हैं। यह तो कुछ भी नहीं मोरां, तू तो जानती है कि राजों-महाराजों के जीवन के बारे में किस्से, कहानियाँ और कविताएँ लिखी जाती हैं। भविष्य में जब भी कोई कलाकार या कलमकार, भले ही सौ-डेढ़ सौ साल बाद बलराज सिंह सिद्धू जैसा लेखक अपने इश्क की कहानी सुनाएगा, ये लोग उसका भी विरोध करेंगे। बेशक तब हम जीवित न हों।“
“आज अकाल बुंगे में क्या हुआ ?“
“होना क्या था। वही हुआ जिसकी मुझे पहले से उम्मीद थी। मुझे तुझसे संबंध रखने से रोका गया है। अब भी मैं सबसे छिपकर तेरे पास आया हूँ। मेरे यहाँ होने के बारे में किसी को भनक तक नहीं है। इसलिए पौ फटने से पहले ही मुझे यहाँ से निकलना पड़ेगा।“
“यह चूहे-बिल्ली वाला खेल और कितने दिन चल सकेगा, महाराज?“
“और एक दिन भी नहीं। मुझे तेरे से हमेशा के लिए यह अवैध रिश्ता खत्म करने का सख़्त आदेश हुआ है।“
“महाराज, मैं आपके बिना एक पल भी नहीं रह सकती। क्या आप मेरे बग़ैर रह लेंगे ?“
“मैं भी तेरे बग़ैर नहीं रह सकता, इसीलिए तो तेरे पास पड़ा हूँ। और मैं यहाँ मक्की बोने तो नहीं आया ?… मोरां मैं सोचता हूँ, हम ये नाजायज़ रिश्ता समाप्त करके विवाह करवा लें। उन्होंने नाजायज़ रिश्ता रखने से रोका है, जायज़ रिश्ते से नहीं।“
“आप सच कहते हैं महाराज… आप मेरे साथ विवाह करवाएँगे ?… खाओ मेरी कसम !“
“कसम गुरू की।“
“फिर आप शीघ्र ही मेरे घरवालों से मेरा रिश्ता मांग लो।“
“हाँ, मैं भी यही सोच रहा हूँ। तेरी माँ तो पागल होकर मर गई थी।
मैं तेरी बहन मोमला को कल ही अमृतसर में बुला लेता हूँ।“
“मोमला नहीं महाराज, आपको मेरे धर्मपिता मियां शमदू से मेरा हाथ
मांगना पड़ेगा।“
“ठीक है, मैं कल ही इसका प्रबंध करता हूँ। तू सुबह होते ही
अमृतसर अपने ठिकाने पर चली जाना। अब मैं चलता हूँ।“
“कुछ देर और ठहरो न महाराज, मुझे ज़रा प्यार तो कर लेने दो।“
वेगमती मोरां महाराजा को दबोचकर चूमना-चाटना प्रारंभ कर देती है और महाराजा भी उस पर जवाबी हमला करते हुए उसके गुलबदन से यूँ लिपट जाता है, जैसे चंदन के वृक्ष से नाग लिपटा होता है।
आत्माओं के तृप्त होने पर महाराजा मोरां को अलविदा कहकर शाही किले की ओर चला जाता है।
महाराजा अगले दिन मियां शमदू को बुलाकर मोरां का रिश्ता मांगता
है तो मियां शमदू के हाथ-पैर फूल जाते हैं। वह कहता है, “महाराज, हम कंजरों की कमाई का एकमात्र साधन तो हमारी लड़कियाँ ही होती हैं। आप लोग लड़का पैदा होने पर शुक्र मनाते हैं, हम लड़की के जन्म पर खुशी मनाते हैं। मोरां को आप रख लेंगे तो मेरा बुढ़ापा बर्बाद हो जाएगा। आप जब भी मोरां का नाच-गाना सुनने के लिए याद किया करेंगे, वो हाजि़र हो जाया करेगी। इसका मैं वायदा करता हूँ। चाहे आधी रात को आवाज़ लगा लेना।“
“मियां जी, मोरां पर लाहौर सरकार का दिल आ गया है। अब आपको कमाई की चिंता करने की ज़रूरत नहीं। आज से तुम्हारा सारा खर्च लाहौर सरकार उठाएगी। हमारे शाही खजाने किसलिए हैं? तुम मोरां के भविष्य के बारे में क्यों नहीं सोचते ? हम उसको दासी नहीं, अपनी शरीक-ए-हयात और अपनी सल्तनत की महारानी बनाने जा रहे हैं। हमारा हुक्म न मानकर तुम हमारी तौहीन कर रहे हो।“
महाराजा रणजीत सिंह के गुस्से से परिचित मियां शमदू घबरा जाता है। वह महाराजा को टालने के लिए बहाना घढ़ता है, “ठीक है, हुजू़र की यही इच्छा है तो मुझे यह रिश्ता मंजूर है। लेकिन हम कंजरों का एक रिवाज़ है कि मोरां के साथ विवाह करवाने के लिए आपको हमारे घर आना होना और ठंडा चूल्हा जलाकर खाना पकाना पड़ेगा।“
“ठीक है, तुम जाकर तैयारी करो। हम परसों बारात लेकर आ रहे
हैं।“
मियां शमदू को पूरा विश्वास होता है कि रणजीत सिंह महाराजा
होने के कारण ऐसा हर्गिज़ नहीं कर सकेगा। सच्चा बनने के लिए वह निकाह के सभी इंतज़ाम कर लेता है। परंतु मोरां को पूर्ण विश्वास है कि महाराजा निकाह के लिए अवश्य आएगा।
सुनिश्चित किए दिन को महाराजा अमृतसर बारात लेकर जा पहुँचता है और चूल्हे में आग जलाने वाली शर्त पूरी करके शाही शान-ओ-शौकत से मोरां के साथ निकाह पढ़ लेता है। हाथी पर बैठकर मोरां और महाराजा सिक्कों की बरसात करते हुए लाहौर राजमहल में आ जाते हैं।
कुछ दिन सुख-शांति से व्यतीत हो जाते हैं तो सिक्ख सरदार फिर नया पंगा खड़ा कर देते हैं कि रणजीत सिंह ने सिक्ख होते हुए निकाह कैसे करवाया लिया ?
इसका तोड़ भी रणजीत सिंह तुरंत ढूँढ़ लेता है और सिक्ख मर्यादा के अनुसार मोरां के साथ दुबारा विवाह करवा लेता है। अब सिक्ख सरदारों के पास महाराजा को मोरां से मिलने से हटाने के लिए कोई बहाना नहीं मिलता। परंतु फिर भी वह गाहे-बेगाहे अपनी भड़ास निकालते रहते हैं।
महाराजा मोरां को हाथी पर बिठाकर कहीं ले जा रहा होता है और बुजऱ् में से निहंग फूला सिंह ताना मारता है, “ओ काणे, किधर सैर करता घ् ाूमता है ? ये झोटा तुझे किसने दिया ?“
“पातशाहो, यह सवारी आपकी ही बख़्शी हुई है। भूल गए?“ महाराजा की हाजि़र जवाबी के आगे अकाली फूला सिंह को कोई बात नहीं सूझती। इस प्रकार के मजाक करने के वे दोनों ही आदी होते हैं। मोरां के पैरों
में घुंघरूओं की जगह अब झांझरें ले लेती हैं।
महाराजा अपनी आरामगाह में मोरां के साथ लेटा चुहलबाजियाँ कर रहा होता है, “मोरां, मैंने तो अफगानों, हमलावरों और शत्रुओं के साथ टक्कर ली है और अपने बाहूबल पर विशाल सल्तनत खड़ी की है। इसलिए मुझे शेर-ए-पंजाब कहा जाता है। शेर जंगल का राजा होता है। ज़रा बता तो तेरा नाम मोरां क्यूँ रखा गया ?“
“महाराज, असल में नाम तो मेरा मुमताज था, पर जब मैंने नृत्य करना शुरू किया तो मेरे उस्ताद मुझे मोरनी की तरह नाचते देखकर मोरनी-मोरनी कहने लग पड़े। फिर आहिस्ता-आहिस्ता लोग मेरा असली नाम भूल गए और मैं मोरां नाम से जानी जाने लग पड़ी।“
“वाह री मोरनी ! और अब शुकरचकिए रणजीत सिंह के महल में नृत्य।“ महाराजा मोरां को कसकर अपनी बाहों में दबोच लेता है। महाराजा जहाँ एक बढि़या योद्धा, जंगजू और निपुण शासक है, वहीं वह संवेदनशील कला प्रेमी और संगीत-रसिया भी है। उसके दरबार में गाने वाली बाइयों और नर्तकियों की संख्या सौ से भी अधिक है। मोरां से मिलने के बाद महाराजा को सब नर्तकियों का नाच फीका और बकबका-सा लगने लग पड़ा है। दरबार में जब किसी नर्तकी का नृत्य पसंद न आता तो महाराजा मोरां से फरमाइश कर देता, “आ मोरां, तू दिखा अपना जलवा।“
बस फिर क्या ? लाहौर दरबार की ज़मीन पर बजती मोरां की ऐड़ी की धमक पाताल तक पहुँच जाती। मोरां का नृत्य देखता महाराजा सरूर में आ जाता। मोरा का नृत्य देखते देखते वह इतना मंत्रमुग्ध हो जाता कि उसको समय के बीतने का भी ज्ञान न रहता। रंडी बाज़ारों में नाचने वाली मामूली मोरां कंचनी से बनी महारानी मोरां के आराम और सुख साधन का हर प्रकार से ख़याल रखा जाने लग पड़ा। कहाँ मोरां वीरवार को दाता गंज बख़्श के मज़ार पर सिजदा करने पैदल जाया करती थी, अब उसके लिए शाही सवारियाँ, हाथी, घोड़े, बग्घियाँ, सेवक और अंगरक्षक एक ताली पर तैयार मिलते हैं। महाराजा से वह जो कुछ कहती है, महाराजा उसको सत्य-वचन कहकर मान लेता है। इससे मोरां के दिमाग में फितूर पैदा हो जाता है। वह बाकी लोगों को कीड़े-मकौड़े समझने लग जाती है।
मोरां अपने धर्मपिता मियां शमदू को मिलने मक्खनपुर, जो लाहौर से कुछ दूर अमृतसर की ओर है, जाती है और मिलने के उपरांत जब वापस महाराजा के पास लौटती है तो बहुत उखड़ी-उखड़ी-सी प्रतीत होती है।
महाराजा उसके स्वभाव में आए इस परिवर्तन को भांपकर उसका कारण पूछता है तो मोरां चेहरे पर उदासी के हाव-भाव दर्शाती हुई कहती है, “क्या बताऊँ महाराज, वो चांदी की कढ़ाई वाली जो कसूरी जूती आपने मुझे तोहफ़े में दी थी न, मोतियों वाली… वो मक्खनपुरा से वापस लौटते हुए लाहौर से बाहर वाले नाले में गिर पड़ी।“
“कौन से नाले में ?“
“वही जो शाहजहाँ ने लाहौर के बाहर शालीमार बागों को रावी नदी का पानी देने के लिए बनाया था। नाले को पार करने के लिए जो लक्कड़ रखी हुई है, उस पर से गुज़रता हुआ मेरा घोड़ा ज़रा डगमगा गया और घोड़े
को काबू में करने के यत्नों में यह सबकुछ हो गया।“
“अच्छा, यह बात है। चलो जूती का क्या है। तू तो बच गई। परामात्मा का शुक्र है, तेरे कोई चोट नहीं लगी। मैं आज ही उस नाले पर पुल बनवाने का हुक्म देता हूँ।“
चंद ही दिनों में उस नाले पर लाहौरी ईंटों के पुल का निर्माण कर दिया जाता है और चूंकि मोेरां के लिए बनाया गया है, इसलिए इसका नाम ‘कंचनी पुल’ पड़ जाता है। परंतु सिक्ख सरदार अक्सर उसको कंजरी पुल कहते रहते हैं, इसलिए आम-अवाम में भी वह पुल ‘कंजरी पुल’ के नाम से प्रचलित हो जाता है। 1⁄4आज भी यह पुल कंजरी मौजूद है और इसके आसपास बसे गांव को भी ‘पुल कंजरी’ कहा जाता है1⁄2।
लाहौर दरबार में मुजरा हो रहा होता है। नर्तकी कौलां और अल्ला जाई 1⁄4अल्ला जुआई1⁄2 में घमासान नृत्य मुकाबला होता है। दोनों एक दूजे से बढ़ चढ़कर नृत्य करती हैं। न कौलां नृत्य करने से हटने का नाम लेती है और न ही अल्ला जाई पीछे रहती है। दोनों नाच नाचकर धरती खोद देती है। अंत में, अल्ला जाई विजयी होती है। महाराजा उसको इनाम में नकदी के अलावा ढेर सारे बहुमूल्य गहनों से नवाज़ता है। “खुश हो अल्ला जाई ?“ महाराजा एक और कीमती हार उसकी ओर बढ़ाते हुए कहता है।
“महाराज, आज तक आपके दर से कोई नाराज़ होकर गया है भल?“
अल्ला जाई नखरे से जवाब देती है और महाराजा खुशी में फूल जाता है, “अल्ला जाई, यह फैसला तो हम आज कर देते हैं कि हमारे दरबार की सर्वोŸाम नर्तकी तू है। अब तू बता, हमारी सभी रानियों में सबसे सुन्दर रानी कौन सी है ?“
“महाराज, गुस्ताखी माफ़ हो। पर मैं इस सवाल का जवाब नहीं दे
सकती।“
“वह क्यों ? क्या यह सवाल कोई ज्यादा कठिन है ?“ महाराजा माथे
पर बल डाल लेता है।
“कठिन ही नहीं महाराज, ख़तरनाक भी है।“
“वह कैसे ?“
“क्योंकि मैं जिस रानी का नाम लूँगी, वो तो खुश हो जाएँगी, पर
बाकी की सभी रानियाँ नाराज हो जाएँगी। मैं एक को खुश करके बाकी रानियों से वैर नहीं ले सकती।“
“ओह, तू घबरा न अल्ला जाई। जवाब तो तुझे देना ही पड़ेगा।“
“महाराज, वैसे कम तो कोई भी नहीं। हाँ, रानी राज बंसो समझो सभी रानियों में चाँद जैसी है और बाकी सभी तारों की तरह झिलमिल झिलमिल करती हैं।“
“…और मोरां सरकार के बारे में तेरा क्या ख़याल है ?“ महाराजा अपने स्वर्ण सिंहासन पर ठीक से होकर बैठते हुए पूछता हे।
“हाँ, मोरां सरकार भी सुन्दर है।“
यह कहकर अल्ला जाई तो चली जाती है, लेकिन राज बंसो 1⁄4रानी महताब देवी की बहन1⁄2 के सबसे सुन्दर होने के बारे में सुनकर मोरां अंदर ही अंदर जलने लग पड़ती है। दरबार में अपने आप पर किसी तरह नियंत्रण किए वह बैठी रहती है। किन्तु, दरबार खारिज होने के बाद जैसे ही मोरां अपने कमरे में जाती है तो उसका क्रोध सातवें आसमान पर होता है। जो भी सामने आती है, वह हर चीज़ फर्श या दीवारों पर फेंककर तोड़ देती है। मोरां सरकार का ऐसा पागलपन देखकर दासियाँ उसको शांत करती हैं। ईष्र्या की आग में झुलसती मोरां को बुखार चढ़ जाता है और उसकी देह तपने लगती है। वह गुस्से में शराब की आधी सुराही एक सांस में पी जाती है। फिर भी, उसके मन को राहत नहीं मिलती। वह अफ़ीमदानी में से थोड़ी-सी अफ़ीम तोड़कर खाने लगती है। जैसे ही वह अफ़ीम की गोली बनाकर सटकने लगती है तो उसके अपने ही हाथ खुद-ब-खुद होंठों के करीब जाकर रुक जाते हैं। वह कुछ पल रुककर सोचने लगती है। एक साजिश उसके मन में करवट लेने लगती है। वह अपने संदूक में से कुछ निकालकर अफ़ीम में मिलाती है। फिर वह अपनी दासी को बुलाकर उसके कान में अपनी चाल समझा देती है। दासी मोरां से अफ़ीमदानी लेकर चली जाती है।
मोरां चिंताओं के बहाव में बहती हुई बिस्तर पर करवटें बदल रही होती है तो महाराजा आकर उसके ऊपर लेट जाता है और अपनी काम वासना को शांत करता रहता है। लेकिन मोरां महाराजा के नीचे पड़ी हुई भी वहाँ से गै़रहाजि़र रहती है।
अगली सुबह पूरे शाही महल में हड़कंप मच जाता है। रानी राज बंसो बेहोश पड़ी मिलती है और उसके मुँह में से झाग निकल रही होती है। वैद के पहुँचने से पहले ही राज बंसो प्राण त्याग देती है। वैद उसका निरीक्षण करके बताता है कि रात में रानी राज बंसो ज़रूरत से अधिक अफ़ीम का सेवन कर बैठी होगी जो उसका हृदय सहन नहीं कर सका। इस प्रकार सारी बात रानी द्वारा आत्महत्या करने के शोर में दबा दी जाती है। कुछ दिनों में सब रानी राज बंसो को भूल जाते हैं।
रानी राज बंसो के क़त्ल का पश्चाताप करने के लिए मोरां पुण्य के अनेक काम करती है। दाता गंज बख़्श की दरगाह पर वह हस्तलिखित कुरान भेंट करती है। इच्छरां 1⁄4लाहौर1⁄2 के निकट भैरों मंदिर को चालीस हज़ार ईंटें और नगदी दान करती है। साध बाबा धूनी दास को मंदिर बनाने में आर्थिक सहायता करती है और दरबार साहिब जाकर पवित्र सरोवर में स्नान भी करती है।
नेपोलियन बोनापार्ट के वाॅटरलू के युद्ध में दाँत खट्टे होने के उपरांत उसके बहुत सारे योद्धा और जनरल देश-विदेश में नौकरी की तलाश में मारे-मारे भटकने लगे थे। उनमें से जिन चार जनरलों ने 1822 में महाराजा को अपनी सेवाएँ पेश की थीं, उनमें से एक ऐलार्ड भी था। ऐलार्ड को भर्ती करते समय महाराजा ने यह शर्त रखती थी कि वह तंबाकू का सेवन न करता हो।ऐलार्ड ने कहा था, “महाराज, तंबाकू तो मैं इस्तेमाल करता हूँ। मुझे एक महीने की मोहलत दो। मैं धीरे धीरे इसे छोड़ दूँगा।“
इस पर महाराजा ने उसको उŸार दिया था, “ठीक है, तंबाकू छोड ़कर महीने बाद आना, फिर तुझे भर्ती करेंगे।“
वही महाराजा मोरां के हुक्के में भरा जाने वाला सुगंधित तंबाकू स्वयं पेशावर से मंगवाने लग पड़ा है।
जब दरबारी महाराजा से इस दोगली नीति के विषय में बात करते
हैं तो अपनी आदत के अनुसार वह तुरंत जवाब देता है, “ऐलार्ड ने तो जंग में लड़ना है, मोरां ने तो शाही दरबार में नाचना है और हमारा चिŸा ही बहलाना है।“
जब भी शाही किले में गोश्त बनता है तो मोरां के लिए शाही बावर्ची अलग से हलाल गोश्त पकाता है। इस बात को आधार बनाकर महाराजा के निकटवर्ती महाराजा के कान मोरां के विरुद्ध भरने आरंभ कर देते हैं, “महाराज, आपने मोरां के इशारे पर कितना कुछ किया है। उसके मुँह से फरमाइश निकलने से पहले ही आप उसे पूरा करते रहे हो। अराइयों के जैलदार मियां मुहम्मद यूसफ से 1641 ई. में इश्कपुरा की ज़मीन लेकर
बादशाह शाह जहान ने शालीमार बाग लगवाया था। आप मोरां की खातिर शालीमार से उसका नाम शायलामार बाग यानि माशूक का बाग कर दिया।… आप तो मोरां को बेपनाह मुहब्बत करते हो। क्या मोरां भी आपसे प्यार करती है या नहीं ?“
“इसमें शक की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है। मोरा भी मुझे जी-जान से इश्क करती है।“
“यदि यह बात है तो उसको एकबार परखकर देखो। उससे कहो कि वह एकबार आपके साथ झटका मांस खाए।“
“लो, यह कौन सी बात है ? मैं कहूँ तो वह ज़हर खाने में भी एक पल नहीं लगाएगी। लो, आज ही तुम्हें यह करतब दिखा देते हैं।“ महाराजा उत्साह में बोलता है।
भोजन का समय हुआ तो छŸाीस प्रकार के भोजन तैयार करके महाराजा के सम्मुख परोसे गए। महाराजा अपनी कुछ रानियों, दासियों और खास दरबारी लोगों के साथ बैठकर भोजन करने लगा। महाराजा जानबूझ कर दो-तीन बार उस डोंगे की ओर मोरां को इशारा करके गोश्त लेने के लिए कहता है, जिसमें झटके वाला गोश्त होता है। मोरां हर बार टाल जाती है।
“मोरां, तू मुझे कितना प्यार करती है ?“ यकायक महाराजा अपना प्रश्न दाग देता है।
मोरां अपना भोजन बीच में छोड़ देती है, “उतना जितना आज तक किसी ने भी किसी को नहीं किया होगा।“
“अच्छा, तो प्यार में तू हमारे लिए क्या कर सकती है ?“
“आप कहोगे तो मैं अगला सांस भी नहीं लूँगी, महाराज।“
“मुझे पता है, तुम्हारे दीन मंे इसकी मनाही है। पर फिर भी, चल
हमारे लिए आज ये झटका खा।“
महाराजा की बात सुनकर मोरां हँस पड़ती है, “हुजूर-ए-आला,
इससे तो अच्छा आप ज़हर दे दो, मैं बिना सोचे खा लूँगी। पर यह झटका नहीं खा सकती। अगर आप भी मुझे प्यार करते हो तो यह जानते हुए भी कि हमारे धर्म में इसकी मनाही है, आपको यह बात कहनी ही नहीं चाहिए थी। अब यदि मैं आपसे कहूँ कि आप हलाल मांस खाओ तो क्या आप
छकोगे ?“
“नहीं, हरगिज़ नहीं।“
“मेरा ख़याल है, आपको आपके प्रश्न का उŸार मिल गया होगा।“
पूरे भोजनगृह में सन्नाटा छा जाता है और महाराजा अपनी हतक
महसूस करता हुआ इधर-उधर की बातों में वक्त बर्बाद करने लग जाता है। लाहौर के मोरी दरवाजे़ के सामने महाराजा मोरां के लिए एक ख़ास प्रकार के बाग का निर्माण करवाता है। उस बाग में महाराजा मोरां के साथ टहलने जाता है। मोरां महाराजा की बांह में बांह डाले उसके कंधे पर अपना सिर रखकर चल रही होती है, “महाराज, क्या मैं सचमुच इतनी खूबसूरत
हूँ जितना लोग मुझे कहते हैं ?“
“इसमें क्या शक है मोरां, तुझे ईश्वर ने फुरसत में बैठकर बनाया है।
मुझे तो लगता है, तेरा एक-एक अंग कई कई बार गिरा गिरा कर बनाया होगा।“ बाग के मध्य में जाकर दोनों बैठ जाते हैं।
“अच्छा, बताओ फिर, आपको मेरा कौन कौन-सा अंग खूबसूरत लगता है ?“
“सिर से पैर तक, तू मुझे सारी की सारी खूबसूरत लगती है !“
“ऐसे नहीं, हाथ लगाकर बताओ, जो जो अंग आपको खूबसूरत लगता है।“
“हाथ नहीं, मैं तो होंठ लगाकर बताऊँगा।“ महाराजा मचल उठता है।
“जैसे आपकी इच्छा।“ मोरां शरारत भरे लहजे में महाराजा को आँख मारकर कहती है।
महाराजा मोरां को लिटाकर पहले उसका माथा चूमता है… फिर बंद दोनों आँखों को बारी बारी चूमता है…फिर दोनों गालों को… फिर नाक…फिर होंठ…फिर ठोड़ी…फिर गर्दन…फिर… फिर… फिर… फिर… फिर…!!! मोरां और महाराजा ऐकमेक हो जाते हैं।
महाराजा के आगोश में बैठी मोरां महाराजा की छाती पर अपनी उंगली से व्यर्थ ही अदृश्य रेखायें खींचती हुई कहती है, “महाराज, एक सवाल
पूछूँ ?“
“एक छोड़, सौ पूछ मेरी जान।“ महाराजा मोरां की आँखों में आँखें
डाल लेता है।
“जब ईश्वर सुन्दर शक्लें बांट रहा था तो आप कहाँ गए हुए थे ?“ मोरां की बात सुनकर महाराजा बहुत गंभीर स्वर में बोलता है, “मोरां,
दरअसल उस समय मैं पंजाब की रक्षा के लिए अपनी रियासत का नक्शा बना रहा था।“
“वाह ! आपकी हाजि़र-जवाबी का जवाब नहीं महाराज !“
“और जब रब आँखें बांट रहा था, तब आप कहाँ गए थे ?“
“तब था तो मैं वहीं, रब ने कहा – तुझे बादशाही करनी है, इसलिए
तुझे एक ही आँख दूँगा ताकि तू सभी को एक नज़र से देखे और सही इन्साफ़ करे।“
मेरां महाराजा के आगे इल्तज़ा करती है, “महाराज, कंचनी शब्द सुन
सुनकर मेरे कान बहरे हो गए हैं। कंचनी का अर्थ नर्तकी या कंजरी होता है। अब तो आपकी रानी बन गई हूँ, पर कंचनी शब्द ने मेरा अभी तक पीछा नहीं छोड़ा। आप सबको कोई न कोई उपाधि देते हो। क्या मुझे ऐसी कोई उपाधि प्रदान कर सकते हैं जिससे इस कंचनी शब्द से मेरा हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए।“
“तुमने इस तरफ कभी मेरा ध्यान दिलाया ही नहीं। चिंता न कर, इसका भी कल कोई समाधान करते हैं।“
अगले दिन दरबार लगाकर महाराजा मोरां को ‘सरकार’ की उपाधि प्रदान करने की घोषणा करता है और कहता है कि भविष्य में मोरां को ‘कंचनी’ के बजाय ‘मोरां सरकार’ कहा करेगा और मेरे से पहले सिजदा मोरां सरकार को हुआ करेगा।
महाराजा की आज्ञा का पालन होता है। कुछ रोज़ बाद मोरां मुसंमन बुर्ज़ में अपना एक अलग ही दरबार लगाना प्रारंभ कर देती है जिसमें वह रियासत की स्त्रियों की समस्याओं का निपटारा करती है। महाराजा की भाँति मोरां की भी प्रजा में महिमा होने लग जाती है।
दरबारी महाराजा को सलाह देते हैं कि मोरां अब मोरां सरकार बन गई है और उसको शाही स्त्रियों की तरह पर्दे में रहना चाहिए। महाराजा मोरां के साथ इस संदर्भ में बात करता है तो वह टके-सा जवाब दे देती है, “महाराज, अब तो घूंघट उठाने की आदत पड़ चुकी है। अब पर्दा करने का क्या फायदा ? सभी ने तो मुझे देखा हुआ है।“
महाराजा मोरां सरकार के कहने में आकर अधिक बहस या जिद्द नहीं करता और मोरां सरकार कभी पर्दा नहीं करती।
ख्वाबगाह में रात को शराब पीती हुई मोरां सरकार महाराजा के साथ रंगरलियाँ मना रही है, “महाराज, आपको एक बात बतानी थी।“
“हाँ, बता फिर।“
“मुझे लगता है, मैं गर्भवती हूँ।“ मोरां डरती और झिझकती हुई कहती है।
“यह तो खुशखबरी है। मुझे अपने जैसा बहादुर और तेरे जैसा पुत्र चाहिए मोरां, जो शुक्रचक्किया मिसल का नाम रौशन करे।“
“अल्ला-ताला ने चाहा तो ऐसा ही होगा, महाराज। पर महाराज, यह मिसल क्या होती है ?“
“जैसे कबीले होते हैं, उसी तरह ही लोगों के गुट को हम मिसल करते हैं। कबीले से मिसल में फर्क़ होता है। इसमें बराबरी का अधिकार होता है। मिसल का असली अर्थ बराबरी है। यूँ सिक्खों की बारह मिसलें हैं। कन्हैया, नकई, भंगी, रामगढि़या, फूलकीया, सिंहपुरिया 1⁄4फैजलपरिया1⁄2, करोड ़सिंघिया, डल्लेवालिया, नशानवालिया, आहलुवालिया, शहीदां और शुक्रचक्किया। मैंने इन सबको केसरी झंडे के नीचे इकट्ठा करने का करिश्मा कर दिखाया है। सबको मैं अपने राज्य में बराबर रखता हूँ। इसीलिए मेरे राज्य की प्रजा सुखी है।“
“नहीं महाराज, पर हमारी बिरादरी वालो को अभी भी हिकारत की निगाह से देखा जाता है। लोग हमारे साथ सामाजिक मेलजोल से कन्नी काटते हैं। मैं चाहती हूँ कि हम नचारों और गाने वालों की बिरादरी के लिए भी आप कुछ करो।“
“तुम खुदमुख्तियार महारानी हो। जो तेरे दिल में आता है, हुक्म कर। तेरे हुक्म की तामील होगी।“
मोरां अमृतसर के निकट अपनी बिरादरी वालों के लिए एक नई शरीफ़पुरा नाम की बस्ती बसा देती है, जहाँ मुजरा संस्कृति से जुड़े तमाम लोग आ बसते हैं। इन लोगों के लिए मोरां सरकार एक पृथक मस्जिद का निर्माण भी करती है। जिसको ‘मस्जिद-ए-तवाइफ़ां 1⁄41992 में इस मस्जिद का नाम बदल कर माई मोरां की मस्जिद रख दिया जाता है1⁄2 कहा जाता है। लाहौर के चैक मती और पापड़ मंडी के बीच में बनी इस मस्जिद में उस वक्त के सबसे बड़े मौलवी मौलाना गलाम रसूल और गुलाम अल्ला को ईमामत सौंपी गई। महाराजा रणजीत सिंह की रियासत के बाकी हिस्सों में भी मोरां सरकार अनेक बाग और मकबरे बनवाती है।
अक्तूबर 1831 में महाराजा मोरां सरकार को संग लेकर रोपड़ में फिरंगियों के साथ संधि करने जाता है। लार्ड विलियम बैनटिक और उसकी पत्नी लेडी मैरी ऐशियन महाराजा और मोरां के प्रेम की तुलना रोमियो और जूलियट की पाक मुहब्बत से करते हुए उनके इश्क को इश्क-मज़ाज़ी की बजाय इश्क-हकीकी कहते हैं और उनकी जोड़ी की लम्बी आयु की शुभकामनाएँ देते हैं।
मोरां से लवेरियां का मौलाना मियां जान मुहम्मद एक मदरसा बनवाने के लिए विनती करता है तो मोरां तुरंत मदरसे के निर्माण का कार्य आरंभ करवा देती है। बहुत शीघ्र ही ड्योढ़ीदार ज़मादार खुशहाल सिंह की देखरेख में मदरसा तैयार हो जाता है, जहाँ फ़ारसी और अरबी की तालीम दी जाती है। मोरां ज़मादार खुशहाल सिंह को तरक्की दिलाकर उसे दरबारी बनवा देती है। ज़मादार खुशहाल सिंह के भतीजों – ध्यान सिंह और गुलाब सिंह को महाराजा से राजा पद भी दिलाती है और अपने विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों को दबाती रहती है।
जब अकाली सिंह मोरां की आँखों में चुभने लगा तो मोरां ने महाराजा को ऐसी पट्टी पढ़ाई कि अगले दिन ही महाराजा और फूला सिंह के बीच ज़ोरदार बहस हो गई।
महाराजा अकाली फूला सिंह से क्रोध में बोला, “मैंने निहंगों की छावनी को जागीर लगा रखी है। आपको मैंने बारह सौ घुड़सवार और अट्ठारह सौ पैदल सिपाहियों की फौज दे दी है। आप जाकर उसका ख़याल रखो।“
महाराजा से ख़फा होकर निहंग फूला सिंह अमृतसर अकाली दल में आ बिराजा। उसके पश्चात हरी सिंह नलुवा मोरां का मुख्य निशाना बन गया। मोरां ने एक रात महाराजा को हीरे, मोतियों और सोने के मिश्रण वाली शराब का जाम पेश करते हुए बात प्रारंभ की, “महाराज, बाहरी हमलावरों में भारत पर सबसे पहले हमला मुहम्मद बिन कासिम ने 21 जून 712 ई. को किया। उसके बाद सुबक्तगीन, महमूद गज़नवी, मुगल, गुलाम वंश, खिलज़ी वंश, फिरोज़शाह तुगलक, लोधी वंश और अब्दाली जैसों को मुँह पड़ गया। हमेशा ही दर्रा-ए-खैबर की ओर से बाहरी हमलावरों का डर बना रहता है। आप भी उस मोर्चे पर काफ़ी नुकसान करवा चुके हैं। आपके पास हरी सिंह नलुवे जैसे बहादुर जरनैल हैं जो लाहौर में बैठे मुफ़्त की रोटियाँ खा रहे हैं। आपने नलुवे को सिक्का चलाने की आज्ञा दी है। बुजऱ् हरी सिंह जैसे इलाके और बाग उसके नाम पर न्यौछावर किए हैं। ऐसा क्यों नहीं करते कि ज़मरौंद के किले पर स्थायी तौर पर ही नलुवे को तैनात कर दो ताकि हमलावरों को हिंदुस्तान में घुसने ही न दिया जाए।“
महाराजा को मोरां की तज़वीज जंच गई और उसने फौरन हरी सिंह नलुवे को ज़मरौंद के किले पर स्थायी तौर पर रहने का हुक्म सुना दिया।
अब समस्त लाहौर दरबार में मोरां की राह का सबसे बड़ा और अहम रोड़ा शाम सिंह अटारी बचता है। मोरां ने अटारी के सरदार को अपने रास्ते से हटाने के अनेक यत्न किए। पर शाम सिंह महाराजा का रिश्तेदार था, इसलिए मोरां को कोई सफलता नहीं मिली। मोरां अपने दिमाग की धार नित्य तीखी करते हुए चालें चलती रहती। लेकिन सब निष्फल हो जातीं।
एक दिन दरबार में सरदार शाम सिंह अटारीवाले ने महाराजा से जबरन ज़ोर डालकर एक जरनैल की पिछले तीन वर्षों की तनख्वाह दिलवाई तो मोरां के जे़हन में तुरंत एक षड्यंत्र ने जन्म ले लिया। मोरां अकेले महाराजा को सैर के लिए ले जाकर अपना पŸाा फेंकती है, “महाराज, आज राज दरबार मंे तनख्वाह वाला क्या मामला था ?“
“वह कुछ नहीं मोरां, गलती मेरी ही है। दरअसल, अपने राज्य को फैलाने के चक्कर में 1822 ई. के बाद मैंने अंधाधुंध फौज में भर्ती करनी शुरू कर दी थी। तू तो जानती है, उसके बाद से मेरी रियासत के नक्शे का विस्तार हुआ है। इसके साथ ही जंगी कार्यों पर खर्चा भी बहुत हुआ है। अब शाही खजाने में इतना दम नहीं रहा कि मैं सारी सेना को पूरी और समय से तनख्वाह दे सकूँ। बहुत सारे सिक्ख जरनैलों ने तो कई कई साल मुझसे तनख्वाह मांगी भी नहीं है। पर जो मांगे उसको तो देनी ही पड़ेगी न ?“ रणजीत सिंह अपने दयालू स्वभाव को दर्शाता है।
“हाँ महाराज, वही तो मैं कहती हूँ कि आपको इस बारे में संज़ीदगी से सोचना चाहिए। समझदार वही है जो हवा का रुख देखकर तूफ़ान के आने का अनुमान लगा ले।“
महाराजा अपने चेहरे पर नज़रे गड़ाये खड़ी मोरां की आँखों में आँखें डालता है, “क्या मतलब है तुम्हारा ? पहेलियाँ न बुझा, खुलकर बता।“
“ओ हो महाराज ! आप तो जानते ही हो कि मालवे में सिद्धू-बराड़ों की सदियों से धाक रही है। इनके पूर्वज को ब्रवमा का वरदान है कि इनका खानदान कभी खत्म नहीं होगा और दुनिया पर इस्लाम की तरह फैलेगा। मैंने सुना है कि आपके दसवें मुर्शद गुरू गोबिंद सिंह ने मालवे में सिक्खी का प्रचार करते समय सिद्धू-बराड़ों को सहायता और रक्षा के लिए नौकरी पर रखा था। जब आपके मुर्शद बजीदपुर, घोगड़, कालझगणी होते हुए छŸोआणे पहुँचे तो बराड़ों ने आपके मुर्शद के घोड़े की लगामें पकड़कर राह रोक लिया था कि हमारी तनख्वाहें दो।“
“हाँ मोरां, कोटकपूरे के लक्खी जंगल की ओर जाने से पहले गुरू
गोबिंद सिंह तब करीब छह महीने दीने में रुके थे और चार पाँच-महीने उन्होंने मालवे में सिक्खी का प्रचार किया था। सिद्धू वंश के संस्थापक सिद्धू राव की दसवीं पुश्त में हमीर सिद्धू के घर योद्धा बराड़ पैदा हुआ। जिससे बराड़ वंश चला। मालवा में हमेशा ही सिद्धू बराड़ों का दबदबा रहा है। मुगल बादशाह औरंगजेब भी इनसे डरता था। गुरू गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को लिखे ज़फरनामे में लिखा था, ‘तुरा ई राहे न खतरह ज़रासत। हमह कौम बराड़ हुकिम मरासत।’ अर्थात तू बेख़ौफ़ होकर हमसे मिल और तेरी जान को कोई ख़तरा नहीं है, क्योंकि बराड़ कौम मेरे हुक्म के अधीन है। सिद्धू-बराड़ों द्वारा तनख्वाह मांगने पर गुरू साहिब ने पोठोहार की संगतों 1⁄4श्रद्धालुओं1⁄2 की ओर से आए ‘दसवंध’1⁄4दसवें हिस्से1⁄2 से उनकी झोलियाँ भर दी थीं। बराड़ों के मुखिया तक आते आते सारी माया खत्म हो गई थी और गुरू डंप डवतंद डवेुनमए स्ंीवतम साहिब ने उससे पूछा था कि ‘भाई दान सिंह मांग, तुझे क्या चाहिए ?’ बाबा दान सिंह बोला, ‘पातशाह, धन-दौलत और दूध-पूत आपका दिया सब कुछ है। बस, सिक्खी की कमी है। मुझे सिक्खी बख़्श दो।’ गुरू साहिब ने प्रसन्न होकर उसको वर दिया था कि सिद्धू बराड ़ योद्धाओं का वंश सबसे अधिक फैलेगा और सिक्खी का प्रचार करेगा। गुरू साहिब के वचन मुझे सच सिद्ध होते प्रतीत होते हैं मोरां। जट्टों में सबसे अधिक
सिद्धू-बराड़ों की संख्या है। यह आख्यान भी प्रचलित है कि एक पूला काटा और सौ सिद्धू निकाला।“
“आप मेरा इशारा नहीं समझे और बात को दूसरी तरफ ले गए महाराज। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि शाम सिंह भी सिद्धू वंश चालने वाले सिद्धू राव की संतान में से है। यदि यह आपके गुरू का राह रोक सकते हैं तो तनख्वाहें लेने के लिए आपके घोड़े की
लगामें पकड़ने में क्या ये ढील बरतेंगे ?“
मोरां की बात सुनकर महाराजा ऐसे चुप हो जाता है जैसे उसको
साँप सूंघ गया हो। कई दिन महाराजा उखड़ा-उखड़ा रहता है। फिर एक दिन शालीमार बाग में महाराजा और शाम सिंह की इतनी अधिक तकरारहोती है कि शाम सिंह लाहौर छोड़कर सदैव के लिए अटारी चला जाता है।
शाम के जाने की ख़बर सुनकर मोरां खुशी में फूली नहीं समाती और लाहौर दरबार में बिना किसी झिझक-डर के अपनी मनमानियाँ करना जारी रखती है।
किसी समय पीर अहमद शाह 1⁄4सैलानी शाह1⁄2 मोरां पर आशिक होकर उस पर निकाह के लिए दबाव डालने लग गया था और मोरां से कहता था कि या तो मोरां उसके साथ निकाह करवाये, नहीं तो कहीं से कूंजों 1⁄4प्रवासी पंछियों1⁄2 के अंडे लाकर दे। मोरां दोनों ही शर्तें पूरी नहीं कर सकती थी। उसने फ़कीर से तंग आकर शहर में मुनादी करवा दी थी कि कोई भी उस फ़कीर को रोटी की बुरकी न दे। इसके बाद उस फ़कीर का नाम ‘कूजां वाला फ़कीर’ पड़ गया था। तंग आकर फ़कीर ने मोरां से माफ़ी मांगी थी और मोरां ने उससे कहा था कि वह उसे बख़्श देगी यदि फ़कीर उसको सात बार झूला झुलाये। फ़कीर ने ऐसा ही किया। मोरां ने उसकी अकड़ तोड ़ने की खुशी में इनाम के तौर पर फ़कीर को एक हज़ार कंबल और एक हज़ार लंगोट दान किए थे। उसके पश्चात मुर्शद मस्तान शाह के उस शार्गिद का नाम ’झूले वाला पीर’ प्रसिद्ध हो गया।
इस प्रकार, एक बार मोरां का सामना अराइयों के सब्ज़ी बेचने वाले मियां मुहकम दीन से हो गया था। मुहकम दीन ने 7 जुलाई 1799 में महाराजा रणजीत सिंह को लाहौरी दरवाज़ा खोलकर लाहौर को फ़तह करने में सहायता की थी। महाराजा ने खुश होकर उसको ‘बाबा’ उपाधि से नवाज़ा था। जब मोरां के साथ मुहकम दीन ने पंगा लेने की गलती की तो मोरां ने मन ही मन कहा था, “मैं भी मोरां नहीं अगर तेरे सिर पर सब्ज़ी का टोकरा उठवाकर तुझे दर दर न भटकाया।“ मोरां ने ऐसी चाल चली कि बेचारा वह बरसों कै़दखाने में अपनी तकदीर को कोसता रहा।
गुलबानो उर्फ़ गुलबहार बेगम के साथ विवाह करवाने के बाद महाराजा की दिलचस्पी मोरां सरकार में कम हो जाती है। मोरां सरकार महाराजा के दिल में अपना पहला वाला स्थान बनाये रखने के लिए सिरतोड ़ यत्न करती है, पर सब यत्न असफल हो जाते हैं। मोरां सरकार को गर्भ ठहर जाने के कारण महाराजा को हर समय रिझाये रखने में वह नाकाम हो जाती है। इस पर वह बेगम गुलबहार को ज़हर देकर मरवाने का प्रयत्न करती है। इस बारे में महाराजा को पता चल जाता है और वह मोरां सरकार को सदैव के लिए अपनी आँखों से दूर एक जागीर देकर पठानकोट भेज देता है। मोरां सरकार अपने आप को शराब में डुबो लेती है।
पठानकोट के किले में अपनी बेटी के साथ गुमनामी का जीवन व्यतीत करती मोरां सरकार ऐडि़या रगड़ रगड़कर 1852 ई. को मर जाती है। लाहौर के मियां साहिब कब्रिस्तान में लाकर मोरां सरकार को दफ़ना दिया जाता है। आज भी लाहौरियों की ज़बान पर मोरां नगमा बनकर नृत्य करती है, “छुप जा अद्धी रात दिया चंदा, अद्धी रात मोरां दे जाणा।“

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